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पड़ती है । यद्यपि इस स्थूलपर्यायमें भी प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है। पर अनादिसे अनन्स तक उसकी एक ही धारा बनी रहती है। इसी कारण यह अनादि-अनन्तपर्याय कहलाती है। अकृत्रिम स्कन्धरूप सुमेरु, चन्द्र, सूर्य आदि रूपमें इस पर्यायकी धारा देखी जा सकती है।
अनादि-सान्तपर्याय जीयके औदयिकमावको कहा जाता है, क्योंकि प्रत्येक प्राणो अनादिकालसे अशान्त है। वह कब सर्वप्रथम अशान्त या अशुद्ध हुआ था, यह कहना असम्भव है जोवको अशुद्धसाकी आदिका पता लगाना असम्भव होने के कारण वह अनादि है। यदि जीव भव्य है तो किसी-न-किसी दिन इस अशुद्धताका अन्त करके शुद्ध और शान्स हो सकता है। ऐसे जीवको अशुद्धताका अन्त दिखलाई पड़ता है । अतः वह सान्त है। इस तरह साधारण संसारी जीवको अशुद्धता औदयिकभावजन्य होनेके कारण अनादि-सान्त है पुद्गलकी अनादि-सान्त कोई पर्याय प्रतिभासित नहीं होती; स्योंकि परमाणु पृथक् हो-होकर पुनः पुनः बन्धको प्राप्त होता रहता है। सादि-अनन्तपर्याय क्षायिकभावजन्य है, जो उत्पन्न होनेके पश्चात् पुनः नष्ट नहीं होती, यथा सिद्ध परमेष्ठीको पूर्ण शुद्धपर्याय किसी विशेष समयमें उनके तपश्चरण आदिके द्वारा प्रादुर्भूत तो अवश्य हुई थी, पर उसका विनाश कभी नहीं होता । अर्थात् इस पर्यायका आदि हो । अन्त नहीं। इसीलिए महादि अनुपम है।
सादि-सान्सपर्याय दो प्रकारको होती हैं:-(१) क्षणभंगुर और (२) दीर्घकालतक स्थित रहनेवाली। क्षणभंगुरपर्याय प्रत्येक गुणके प्रतिक्षणके स्वाभाविक परिवर्तनमें घटित होती है। यह पर्याय केवलज्ञानगम्य है । इसे षट् गुणहानिद्धिरूप स्वभाविक क्षणिकपर्याय या सूक्ष्म-अर्थपर्याय भी कहते हैं । कुछ क्षणस्थायी पर्याय औपशमिकभावरूप है । यह पर्याय भी इतने कम समय स्थित रहती है कि स्थलशानी इसे ग्रहण नहीं कर पाते। पुद्गलमें भी यह पर्याय देखी जा सकती है। दीर्घकालस्थायी सादि-सान्तपर्याय भी दो प्रकारकी है:-(१) पूर्णअशुद्ध औयिकभावरूप, (२) शुद्धाशुद्धक्षायोपशमिकभावरूप ] क्षायोपशमिकभावके साथ औदयिकभावके रहनेसे ये पर्यायें सादिसान्त स्थितिको प्राप्त होती है। संक्षेपमें सादि-सान्त पर्याय औपशमिकभाव, क्षायोपमिकभाव और औदयिकभाव रूप होतो हैं । ___ ओपमिकभाव तो सादि-सान्त शुद्धभाव है। क्षायोपशमिकभाव सादिसान्त शुद्धाशुद्ध भाव हैं और औदयिकभाव सादि-सान्त अशुद्धभाव है। विचारकी दृष्टिसे पर्यायोंके निम्नलिखित भेद हैं:४६२ : तोयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा