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मसिज्ञान, अवषिकान, मनःपर्यशान और बलशान, चार शान ऐसे हैं, जो धर्म-धर्मीका भेद किये बिना बस्तुको जानते हैं। इसलिए ये सबके सब प्रमाणशान हैं। श्रुतमान विचारात्मक होनेसे कभी धर्म-धर्मीका भेद किये बिना स्वस्पको अवगत करता है और कभी धर्म-धर्मीका भेद करके वस्तुका बोध करता है। जब धर्म-धर्मीका भेद किये बिना वस्तु प्रतिभासित होती है, सब यह श्रुतज्ञान प्रमाण कहलाता है और जब उसमें धर्म-धर्मीका भेद होकर वस्तुका मान होता है, तब वह नय कहलाता है। इसी कारण नयोंको श्रुतज्ञानका भेद माना गया है।
नयस्वरूप
अनन्तधर्मात्मक होने के कारण वस्तु बहुत जटिल है। उसको जाना तो जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता । उसे कहने के लिए वस्तुका विश्लेषण कर एक-एक धर्म द्वारा क्रमपूर्वक उसका निरूपण करनेके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। वक्ता किसी एक धर्मको मुख्यकर उसका कथन करता है। उस समय उसको दृष्टिमें अन्य धर्म गौण होते हैं, पर निषिद्ध नहीं । कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस कथनको क्रमपूर्वक सुनता हुआ अन्समें वस्तुके यथार्थ अखण्ड व्यापक रूपको ग्रहण कर लेता है। यह वस्तुधर्मग्रहणकी प्रक्रिया नय कहलाती है । नयका शाब्दिक अर्थ है-नयति इति नयः अर्थात् जो जीवादि पदापोंको लाते हैं या प्राप्त कराते हैं, वे ज्ञानांश नय कहलाते हैं।
अनेक धर्मोको युगपत् ग्रहण करनेके कारण प्रमाण अनेकान्तरूप और सकलादेश है तथा एक धर्मको ग्रहण करनेके कारण नय एकरूप व विकलादेशी है। प्रमाणज्ञानको-अन्य धर्मोकी अपेक्षाको बुद्धिमें सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जानेवाला नय ज्ञान या सम्यक वाक्य है ।
पदार्थ तीन कोटियों में विभक्त है:-१. अस्मिक या वस्तुरूप, २. शब्दात्मक या वाचकरूप और ३. ज्ञानात्मक या प्रतिभासरूप । इन तीन प्रकारके पदार्थोको विषय करनेके कारण नय भी तीन प्रकारके होते हैं।--(१) अयनय, (२) शन्दनय, (३) ज्ञानमय । वस्तुतः मुख्य-गोणविवक्षाके कारण वक्ताके अमिप्राय अनेक प्रकारके होनेसे नयके अनेक भेद हैं ।
अनेकान्तात्मक वस्तुका जिस धर्मको विवक्षासे वक्ता कथन करता है उसके उसी अभिप्रायको जाननेवाले शानको नय कहा जाता है। यह भावनयका लक्षण है । उस धर्म तथा उसके वाचक शब्दको द्रव्यनय कहते हैं । प्रकारान्तरसे धमविवक्षावश लोकव्यवहारके साधक, हेतुसे उत्पन्न श्रुतज्ञानके विकल्प४५८ : तीकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा