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सप्तम परिच्छेद
गणधर, समवशरण, शिष्य एवं निर्वाण
समवशरण : पीयूष - वाणीकी आकांश
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तीर्थंकर महावीरने अर्हत्व प्राप्त कर लिया । उनके ज्ञानके अपूर्व प्रकाशसे सारा संसार जगमगा उठा, दिशाएँ शान्त एवं विशुद्ध हो गयीं । मन्द मन्द सुखद पदन बहने लगा । सौधर्म इन्द्र और अन्य चतुर्निकायदेव महावीरके केवलज्ञान-कल्याणककी पूजा कर चुके थे । इन्द्रने अपने कोषाध्यक्ष कुबेरको बुलाया और एक विशाल सभा मण्डप - समवशरणको रचनाका आदेश दिया । इन्द्रकी अभिलाषा थी कि विगत २३ तीर्थंकरोंके समान अन्तिम तीर्थंकर महावीर भी अपनी देशनाद्वारा संसारके संत्रस्त, सन्तप्त प्राणियोंको शान्ति प्रदान करें । इस उद्द ेश्यकी पूतिके लिये ऋजुकूलाके तटपर अविलम्ब समच
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