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शरणको स्वना की गयी। कुबेर हर्षित था और उसे अपना वैभव अकिंचन लग रहा था।
विशाल भव्य समवशरण रचा गया। उसकी शाभा अप्रतिम और सजावट अद्वितीय थो । धरतीके वक्षस्थलपर निर्मित यह समवशरण विश्वके गौरवका प्रसीक था। इसके चारों द्वारोंके आगे धर्म-ध्वजोंसे मण्डित मानस्तम्भ और धर्मचक्र सुशोभित या समवशरण प्राकार, चैत्य वृक्ष, ध्वजा, पनवेदो, तोरण, स्तूप आदि रत्नमय एवं जिन-प्रतिमाओंसे युक्त थे ।
प्राणी इस सभा-मण्डपमें पहुँचते ही आनि-व्याधि भूल जाता था। धर्ममय दातावरणमें वह निराकुल हो जाता था। इस सभा-मण्डपमें मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक पहुंच कर अपना कल्याण करते थे। समवशरण द्वादश कोष्ठकोंमें बटा हुआ था, जिनमें साधु-आर्यिका, देव-देवाङ्गना और पशु-पक्षी बैठते थे। इसके मध्यमें गन्धकुटी थी, जिसमें एक स्वर्णसिंहासन रखा हुआ था। महावीर इतने निर्लिप्त और निर्मोही थे कि उसका स्पर्श भी उन्हें नहीं होता था। उनको पुण्यप्रकृतियोंसे शरीर इतना सूक्ष्म और सुन्दर हो गया था कि वह अधिक स्थूल पदार्थका आश्रय न चाहकर आकाशमें ही स्थिर था। सिंहासनपर स्वर्ण-कमल बना था, जिससे यह प्रतिभासित होता था कि भगवान् कमलासनपर विराजित हैं।
यह समवशरण आत्मानुशासनका प्रतीक था। यहां किसी प्रकारको आकुलता नहीं थी, सभी प्राणी शान्त, विनम्र और अनुशासित थे ।
स्थापत्यकलाको दृष्टिसे भी यह एक अलौकिक उदाहरण था। सर्वप्रथम धूलिसालकोट बना हुआ था, इसके आगे मानस्तम्भ और मानस्तम्भके आगे वापिकाएँ विद्यमान थी । वापिकाओंसे कुछ दूर जानेपर जलपूर्ण परिखा, इसके आगे लतावन और तदनन्तर प्रथम परिकोट आता था। इस कोटके द्वार पर देव द्वारपालके रूपमें विद्यमान थे और गोपुरद्वारपर आठ मंगलद्रव्य स्थित थे। इसके आगे दूसरा परिकोट विद्यमान था, जिसमें अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन ये चार वन विद्यमान थे। इन वनोंमें चैत्यवन भी थे, जिनके वृक्षोंपर तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएं विराजमान थीं। यहाँ किन्नर-जातिको देवियाँ तीर्थंकरका गुणगान करती हुई परिलक्षित होती थीं। इसके पश्चात् चार गोपुरद्वारों सहित वलवेदिका उल्लंघन करनेपर अनेक भवनोंसे युक्त पृथ्वी और स्तूप अवस्थित थे। ये भवन तीन, चार और पांच खण्डोंके थे। भवनोंके बीच में रलतोरण लगे हुए थे। जिनमें मूर्तियाँ अंकित थीं । यहाँ रत्नमय स्तूप भी सुशोभित होता था।
१८२ : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा