________________
देवोंका दृष्टिमोह नष्ट कर दिया ।"
तत्त्वार्थवात्तिक में मुखसे दिव्यध्वनिकी उत्पत्ति बतलायी गयी है । बताया है कि सकलज्ञानावरणके क्षयसे उत्पन्न अतीन्द्रिय केवलज्ञान से युक्त केवली जिह्वाइन्द्रियके आश्रयमात्र से वक्तृत्वरूपमें परिणत होकर सकलश्रुतविषयक अर्थोंका उपदेश करता है । "
हरिवंशपुराण में भी बताया गया है कि दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में दिखनेवाले चारों मुखों से निकलती है ।
महापुराणके आधारपर कहा जा सकता है कि वा मुखरूप कमलसे बादलोंकी गर्जनाका अनुकरण करनेवाली अतिशययुक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी और वह भव्यजीवोंके मनमें स्थित मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करती हुई सूर्यके समान सुशोभित हो रही थी। इस दिव्यध्वनिमें सभी अक्षर स्पष्ट थे और ऐसी प्रतीति हो रही थी, मानो गुफाके अग्रभागले प्रतिध्वनि ही निकल
१. ( क ) जिनभाषाऽधरस्पन्दमन्तरेण विजृम्भिता । तिर्यग्देवमनुष्याणां दष्टिमोहमनीनशत् ॥ - हरिवंशपुराण २।११३. (ख) लोक्ये जिनशासनोरूपदवीशुश्रूषयावस्थिते, सम्पृष्टः प्रथमेन तत्र गणिना विश्वाविद्योतनः । भूयो भेदविवृत्तयाधरपरिस्पन्दोसितस्थात्मना मोहध्वान्तमकरोदय जिनो भानुः स्वभाषाश्रिया ।।
- वही, ९।२२४.
(ग) भाषाभेदस्फुरन्त्या स्फुरणविरहितस्वाधरोद्भाषमा च । - हरिवंशपुरण ५६।११७.
२. सकलज्ञानावरणसंक्षयाविर्भूतातीन्द्रियकेवलज्ञान: रसनोपष्टम्समात्रादेव वक्तृत्वेन परिणतः सकलान् श्रुतविषयानर्थानुपदिशति ।
--तस्वार्थवार्तिक २।१९।१० १० १३२ ( - ज्ञानपीठ-संस्करण)
.
३. सरप्रश्नानन्तरं धातुश्चतुर्मुख विनिर्गता । चतुर्मुखफला सार्या चतुर्वर्णामाश्रया ।।
-हरिवंश ५८ ३
२३४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी भावार्य परम्परा