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निरीह पशुओंका निर्मम बध किया जा रहा था । पशुमेध ही नहीं नरमेध भी किये जा रहे थे। भीषण रक्तपात विद्यमान था। अग्निकुण्डोंसे चीत्कारकी ध्वनि कर्णगोचर हो रही थी। वर्वरता और अमनुष्यताका नग्न ताण्डव वर्तमान था । मनुष्य मनुष्य के द्वारा होनेवाले निर्लज्ज शोषणका इतिहास बना हुआ था। तीर्थकर पाश्वनाथके पश्चात् यज्ञीय क्रियाकाण्डोंने मानवताको संत्रस्त कर दिया था। आलोककी धर्मरेखा धुंधली होती जा रही थी और जीवनका अभिशाप दिनानुदिन बोझिल हो रहा था।
अनेक व्यक्ति अपनेको तीर्थकर कहने लगे थे और ये व्यक्ति भी मानवताके असमर्थ थे। कोई कहता था कि भौतिकता ही जीवनका चरम लक्ष्य है, कोई प्राणमें कहता था कि अक्रिया ही धर्म है और कोई अकर्मण्यताको ही धर्म घोषित करता था। क्षणिकवाद, नित्यवाद, नियतिवाद आदि सिद्धान्त दिग्भ्रान्त मानवको शान्ति प्रदान करने में असमर्थ थे। स्वर्ग, नरक बिक रहे थे और धनिकवर्ग लम्बी-लम्बी रकमें देकर अपना स्थान सुरक्षित करा रहा था । धर्म और दर्शनके क्षेत्रमें पूर्णतया अराजकता विद्यमान था। अव्यवस्था, औद्धत्थ, अहकार, अज्ञानता और स्वैराचारने धर्मकी पावनताको खण्डित करदिया था। वर्गस्वार्थकी दूषित भावनाओंने मानवताको धूमिल कर दिया था। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और मैत्री जैसी उदात्त भावनाएँ खतरेमें थीं। सदियका स्थान वर्णोदयने प्राप्त कर लिया था और धर्म एक व्यापार बन गया था। उस समयके विचारकोंमें पूर्णकाश्यप, मक्खली गोशालक, अजितकेशकम्बल, प्राद्ध कात्यायन, संजय बेलट्टिपुत्र और गौतम बुद्ध प्रमुख थे । 'दोनिकाय'के 'समनफलसुत्त में निग्रंथ ज्ञातपुत्र महावीर सहित सात धर्मनायकोंकी चर्चा प्राप्त होती है। हम यहाँ उस समयके धर्मनायकोंकी प्रमुख मान्यताओंका विवेचन कर उस समयकी धार्मिक स्थितिका स्पष्टीकरण प्रस्तुत करेंगे। अक्रियावाद-प्रवर्तक : पूर्णकाश्यप
पूर्णकाश्यप अक्रियावादके समर्थक थे । अनुभवोंसे परिपूर्ण मानकर जनता इन्हें पूर्ण कहती थी। ये जातिस ब्राह्मण थे और काश्यप इनका गोत्र था । ये नग्न रहते थे और अस्सी हजार इनके अनुयायी थे। एक बौद्ध-किंवदन्तीके अनुसार यह एक प्रतिष्ठित गृहस्थ के पुत्र थे । एक दिन इनके स्वामीने इन्हें द्वारपालका काम सौंपा। पूर्णकाश्यपने इसे अपना अपमान समझा और विरक्त होकर अरण्यकी ओर चल पड़े। मार्गमें चोरों ने इनके कपड़े छीन लिये, तबसे ये नग्न रहने लगे। एक बार जब ये किसी ग्राममें गये, तो लोगोंने इन्हें पहनने के लिये वस्त्र दिया । पूर्णकाश्यपने वस्त्र वापस करते हुए कहा--"वस्त्रका प्रयोजन लज्जा-निवारण
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ७३