________________
वैदिक आर्योंकी शुद्ध संतति समाप्त हो रही थी। रमिश्रण, सांस्कृतिक आदानप्रदान एवं धर्म-परिवर्तनादिके कारण नवीन भारतीय जातियो उदय में आ रही थीं। आर्य और धड़ामें भी सा मिश्रण हो रहा था और परस्सर जातीय भेद-भाव टूटता जा रहा था। व्यवसायकर्मके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र इन चार वर्षों में समस्त भारतीय समाज विभक्त हो रहा था। क्षात्रधर्म पालन करनेवाले आर्य-व्रात्य, नाग और द्रविड सभी क्षत्रिय कहलाते थे । इतना होनेपर भी वैदिक संस्कार इतने सुदृढ़ और सुगठित थे कि उनमें सामान्यतया कोई परिवर्तन दिखलायो नहीं पड़ता था । वेदानुयायी ब्राह्मण 'अहंदश' अपनेको सर्वश्रेष्ठ, पवित्र और क्रियाकाण्डका अधिकारी मानता था । वैदिक धर्म और मान्यताएं इतनी जटिल और आडम्बरपूर्ण हो गयी थीं कि उनकी लोकग्राह्यता समाप्तिपर थी। वर्णाश्रमधर्म समाजपर छाया हुआ था । यद्यपि इसके विरोधमें क्रान्तिकी ध्वनि गूंज रही थी, पर इस प्रथाके विरोधमें खड़े होनेको क्षमता किसी व्यक्तिविशेषमें अवशिष्ट नहीं थी। धार्मिक स्थिति :
ई० पू० ६०० के आस-पास भारतको धामिक स्थिति भी बहुत हो अस्थिर और भ्रान्त थो। एक ओर यज्ञीय कर्मकाण्ड और दूसरी ओर कतिपय विचारक अपने सिद्धान्तोंकी स्थापना द्वारा जनताको संदेश दे रहे थे । चारों ओर हिंसा, असत्य, शोषण, अनाचर एवं नारीके प्रति किये जानेवाले जोर-जुल्म अपना नग्न ताण्डव प्रस्तुत कर रहे थे। धर्मके नामपर मानव अपनी विकृतियोंका दास बना हुआ था । वैयक्तिक स्वातंत्र्य समाप्त हो चुका था और मानवके अधिकार तानाशाहों द्वारा समाप्त किये जा रहे थे । मानवता कराह रही थी और उसकी गरिमा खण्डित हो चुकी थी। धर्म राजनीतिका एक भोंथा हथियार मात्र रह गया था। भय और आतंकके कारण जनता धार्मिक क्रियाकाण्डका पालन करती थी, पर श्रद्धा और आस्था उसके हृदयमें अवशिष्ट नहीं थी। स्वार्थलोलुप धर्मगुरु और धर्माचार्य धर्मके ठेकेदार बन बैठे थे। मानवकी अन्तश्चेतना मूर्छित हो रही थी और दासताको वृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जाती थी।
दिग्भ्रान्त मानवका मन भटक रहा था और कहीं भी उसे शानका आलोक प्राप्त नहीं हो रहा था । नारीको सामाजिक स्थिति भयावह थी। उसका अपहरण किया जा रहा था। कोई उसे बेड़ियोंमें जकड़ता और कोई उसे तलघरोंमें बन्द करता था। फलत: नारोका नारीत्व ही नहीं अपितु समस्त मानवसमाज अन्धकारमें भटक रहा था और सभीको दृष्टि उद्धारके हेतु किसी महाशक्तिकी प्रतीक्षामें लगी हुई थी। ७२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा