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कञ्चिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसंमान्यम् । ब्राह्मणविशिष्टं व्रात्यमनुलक्ष्यवचनमिति मन्तव्यम् ।।
व्रात्यकाण्डको भूमिका में आचार्य सायणने लिखा है - " उपनयन आदिसे हीन मानव व्रात्य कहलाता है। ऐसे मानवको वैदिक कृत्योंके लिये अनधिकारी और सामान्यतः पतित माना जाता है। परन्तु कोई व्रात्य ऐसा हो, जो विद्वान् और तपस्वी हो, ब्राह्मण भले ही उससे द्वेष करें, पर वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्माके तुल्य होगा ।"
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि अथर्ववेदका व्रात्यकाण्ड किसी ब्राह्मणेतर परम्परासे सम्बद्ध है । यह परम्परा श्रमणोंकी हो सकती है । प्रात्य शब्दका मूल व्रत है । व्रतका अर्थ धार्मिक संकल्प और संकल्पोंमें जो साधु है, कुशल है, वह व्रात्य है। डॉ० हेवरने ब्रात्य शब्दका विश्लेषण करते हुए लिखा है -- "वात्यका अर्थ व्रतोंमें दीक्षित है। अर्थात् जिसने आत्मानुशासनको दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक व्रत स्वीकार किये हैं, वह ज्ञात्य है ।"
अतएव स्पष्ट है कि व्रतोंकी परम्परा श्रमण संस्कृतिको मौलिक देन है 1 वेद, ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में कहीं भी व्रतोंका उल्लेख नहीं है । डॉ० कीथ, मैकडोनल आदिने भी व्रतोंमें दीक्षित व्यक्तियोंको व्रात्य कहा है । इस प्रकार प्राचीन कालमें व्रात्य शब्दका प्रयोग श्रमण-संस्कृति के अनुयायियों के लिये प्रयुक्त होता था। डॉ० ज्योतिप्रसादजीने प्रो० जयचन्द्र विद्यालंकार का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है - " क्षात्रबन्धु शब्दका प्रयोग हीनताका भाव सूचित करनेके लिये किया गया है। क्योंकि वे व्रात्य लोगोंके क्षत्रिय थे और व्रात्य वे आयंजातियाँ थीं, जो मध्यदेश के पूर्व या उत्तर-पश्चिममें रहती थीं । वे मध्यदेशके कुलीन ब्राह्मण क्षत्रियोंके आचारका अनुसरण नहीं करती थीं । उनकी शिक्षा-दीक्षाको भाषा प्राकृत थी और वेश-भूषा आर्योकी दृष्टिसे परिष्कृत न थी । वे मध्यदेशके ब्राह्मणोंके संस्कार न करते थे और ब्राह्मणों के बजाय अरहन्तोंको मानते थे तथा चेतियों (चैत्यों) की पूजा करते थे । *"
वस्तुतः महावीर के पूर्व सामाजिक क्रान्ति परिलक्षित होने लगी थी और १. अथर्ववेद १५।१।१।१.
२. वही, १५।१।११.
3. Vratya as initiated in varatas. Hence vratyas meaus a person who has volmitanly accepted the moral code of vows for his own spiritual discipline-By Dr. Hebar.
४. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण, पृ० ३९.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ७१