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________________ भिचारके विरोध में ही था । शतपथ ब्राह्मण में विवाह सम्बन्धी यह प्रतिषेध रक्त-सम्बन्धकी तृतीय या चतुर्थं पीढ़ी तक समाविष्ट हो गया । ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अपनेसे हीन वर्णकी कन्या के साथ विवाह कर सकते थे । जाति-पाँति व्यवस्था दिनोदिन संकीर्ण होती जा रही थी। ब्राह्मणका प्रभुत्व पर्याप्त विकसित हो गया था । क्षत्रिय भूमिके स्वामी माने जाते थे। वेश्योंका कार्य कृषि एवं वाणिज्य द्वारा धनार्जन करना था तथा शूद्र सेवा द्वारा ही अपना उदर-पोषण करते थे । समाजके संचालनका दायित्व उच्च वर्गके व्यक्तियोंके हाथमें था और वे चाहें जैसे भी समाजपर अत्याचार और नाचार कर सकते थे | उस समय वैदिक और श्रमण दोनों हो सामाजिक संगठनमें भाग ले रहे थे । विष होने लगी थीं, जिनके फलस्वरूप विभिन्न वर्णके व्यक्ति अपने वर्णके विरुद्ध कार्य करने लगे थे । नाग, द्रविड़ आदि जातियाँ वैदिक क्षत्रिय - राजसत्ताओं का सामना करने लगी थीं । शनैः शनैः पुरानी राजसत्ताओंके स्थानपर व्रात्य एवं क्षात्र बन्धुओंकी राजसत्ताएँ स्थापित होने लगी थीं। ब्राह्मण परम्पराको अनुश्रुतियों में लिच्छवि, मल्ल, मोरीय आदि जातियोंको व्रात्य बताया गया है। शिशुनागवंशको भी क्षत्रिय नहीं, अपितु क्षात्र बन्धु कहा गया है । ' व्रात्य' शब्द अथर्ववेद में भी आया है । यह श्रमण परम्परासे सम्बन्धित है । यह शब्द अर्वाचीन काल में आचार और संस्कारोंसे हीन मानवोंके लिये व्यवहृत होता रहा है । आचार्य हेमचन्द्रने अपने 'अभिधानचिन्तामणि कोश' में - " प्रात्यः संस्कारवर्जितः । व्रते साधुः कालो व्रात्यः । तत्र भवो व्रात्यः प्रायश्चित्तार्हः, संस्कारोऽत्र उपनयनं तेन वर्जितः ' लिखा है । 411 मनुस्मृतिमें बताया है-- क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त करनेपर भी असंस्कृत हैं। क्योंकि वे व्रात्य हैं और वे आर्यों द्वारा गर्हणीय हैं । ब्राह्मण संतति, उपनयन आदि व्रतोंसे रहित होने के कारण व्रात्य शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है। इस प्रकार अर्वाचीन उल्लेखोंमें व्रात्यका अर्थ आचारहीन बतलाया गया है, पर प्राचीन ग्रन्थोंमें व्रात्यका अर्थ विद्वत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वसम्मान्य व्यक्ति के अर्थ में आया है। अथर्ववेद में लिखा है १. अभिधानचिन्तामणिकोष, २०५१८. २. द्विजातयः सवर्णासु जनयन्स्यव्रतांस्तु ताम् । तान् सावित्री-परिभ्रष्टान् बाह्यानिति विनिदिशेत् ॥ - मनुस्मृति १०/२० ७० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
SR No.090507
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size14 MB
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