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अनादि और अकृत्रिम रूपसे लोक अवस्थित है। यह लोक मनुष्याकार है तथा चारों ओर तीन प्रकारको वायुओंसे वेष्टित है। अर्थात् लोक घनोदधिवासवलयसे, घनोदधिवातवलय धनवातवलयसे और धनवातवलय तनुवासवलयसे वेष्टित है। तनुवातवलय आकापाके आश्रय है और माकाश अपने ही आश्रय है, उसको दूसरे आशयको आवश्यकता नहीं । यसः आकाश सर्वव्यापी है।
धनोदधिवातवलयका वर्ण भूगके सदृश, घनवातवलयका वर्ण गोमूत्रके सदृश और तनुवातवलयका वर्ण अव्यक्त है। इस लोकके मध्यमें एक राजू चौड़ी, एक राजू लम्बी और चौदह राजू ऊंची प्रसनाही है। द्वौन्द्रियादि वसजीव इसी सनाड़ीमें रहते हैं, इसके बाहर सजीवोंका अस्तित्व नहीं है। लोकके भेद ___ लोकके तीन माग है:--(१) अधोलोक, (२) मध्यलोक और (३) कज़लोक। मूलसे सात राजकी ऊँचाई तक अधोलोक है, सुमेरुपर्वतकी ऊंचाईके तुल्य मध्यलोक है और सुमेरुपर्वससे ऊपर एक लाख चालीस योजन कम सात राज प्रमाण अर्ध्वलोक है । लोकको धारण करनेवाला कोई व्यक्ति या परोक्ष शक्ति नहीं है । यह स्वभावतः अवस्थित है। अपोलोक : स्वरूप और विस्तार __ सुमेरुपर्वतकी अड़से नीचे सात राजू प्रमाण अघोलोक अवस्थित है। जिस पृथ्वीपर हमलोग निवास करते हैं, उस पृथ्वीका नाम चित्रा पृथ्वी है। इसकी मोटाई एक हजार योजन है और यह पृथ्वी मध्यलोकमें सम्मिलित है। सुमेरुपर्वतकी जड़ एक हजार योजन चित्रा पृथ्वीके भीतर है, शेष निन्यानवे हजार योजन चित्रापथ्वीके ऊपर है और चालीस योजनकी चूलिका है । सब मिलाकर एक लाख चालीस योजन ऊंचा मध्यलोक है । मेरुको जड़के नीचेसे अघोलोक प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम मेरुपर्वतकी आधारभूत रत्नप्रभा पुथ्वी है। इसका पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण दिशामें लोकके अन्त पर्यन्त विस्तार है। रत्नप्रभाकी मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है। इसके आगे शर्कराप्रभा नामक दूसरी पृथ्वी है, जिसकी मोटाई बत्तीस हजार योजन है। शर्कराप्रभाके नीचे कुछ दूर तक केवल आकाश है, जिसके आगे अट्ठाईस हजार योजन मोटी
दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक इति । तस्माल्लोकाकाशात्परतो बहिभांगे पुनरनन्ताकाशमलोक इति । स चानादिनिधनः केनापि पुरुषविशेषेण न कृतो न हतो न धृतो न स रक्षितः।
-बृहदम्यसंग्रह-संस्कृत-टीका-२० गाषा, पृष्ठ ५९.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३९७