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इसी बात है कि इसे प्राप्त कर जसे छुटकारा प्राप्त बिमा दाष: मानव-जीवन दुर्लभ हैं, अनुपम है और है यह मूल्यवान पर्याय । तीर्थंकरके पादमूलको प्राप्तकर भी यदि इस जीवन में साधना नहीं की गई, तो फिर शायद ही कभी अवसर प्राप्त होगा। जो व्यक्ति वासनासवत है, वह अपने स्वरूपको नहीं समझ सकता है। उसे आत्मबोध और आत्मविवेक प्राप्त होना कठिन है। अतएव मुझे क्रोध, मान, माया, आदि विकारोंको जीतने के लिए सचेष्ट होना चाहिए ।"
अभयकुमार संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त हो दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करनेके लिए प्रभुके चरणों में प्रार्थना की। महावीरने अभयके पूर्वजन्मोंका वृत्तान्त प्रकटकर उसके हृदयकी गाँठ खोल दी। उन्होंने बतलाया:--"अभय पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण-पुत्र था, वेदाध्ययनकी ओर उसकी विशेष रुचि थी; पर विद्वान् होनॅपर भी वह मूढ़ताओ में आबद्ध था । उसकी मिथ्याभिरुचि उसे पथभ्रष्ट कर रही थी ।"
पांच मूढ़ताएँ प्रमुख पी :
(१) पाखण्ड मूढ़ता ।
(२) देवमूढ़ता - सभी प्रकारके देवोंमें अन्धविश्वास ।
(३) तीर्थ मूढ़ता -- तीर्थों में अन्धभक्ति ।
(४) जाति बन्धन |
(५) क्रियाकाण्ड एवं हिंसकधर्म में विश्वास ।"
"इन मूढ़ताओं में जकड़े हुए इस ब्राह्मण पुत्रका एक श्रावक से साक्षात्कार हुआ । श्रावकने उसे सत्यज्ञानका उपदेश दिया । बतलाया कि मनुष्य अपने सत्कर्मसे ही उन्नत होता है । अतः सत्कर्म ही पूजा है, सत्कर्म ही तीर्थ और सत्कर्म ही महान है । सत्कर्म वही है, जो जगत् के समस्त प्राणियोंको सुख और शान्ति प्रदान कर सके । जातिवाद अतात्त्विक है । संसारके सभी मनुष्य समान हैं, न कोई छोटा और न कोई बड़ा है। मनुष्यकी श्रेष्ठता आचारमूलक है । जिस व्यक्तिका अहिंसामूलक आचार रहता है, वही व्यक्ति अपना और संसारका हित साधन करता है ।"
"श्रावकके उक्त उपदेशसे ब्राह्मण-पुत्र प्रभावित हुआ और वह अहिंसाके आचरण में संलग्न हो गया । मृत्युके पश्चात् सत्कार्योंके परिणामस्वरूप उसने राजाके यहाँ जन्म ग्रहण किया और राजकुमार पद प्राप्त किया । यह राजकुमार ही अभयके रूपमें उपस्थित है ।"
अभयकुमार अपने पूर्वजन्मके वृतान्तको सुनकर अधिक प्रभावित हुआ ।
२२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा