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प्रामाणिक व्यवहार और विचार, रत्नत्रय, सम्यकदर्शनका महत्त्व, उसको उत्पत्तिके कारण, उसके भेद, आठ अङ्ग, तोन मूढताएँ, आठ मद आदिका विशद विवेचन है । आचारके निरूपण-सन्दर्भमें श्रावकाचार तथा मुन्याचार दोनोंका विस्तृत प्रतिपादन है । एकादशम परिच्छेद : समाज-व्यवस्था
इस एकादश परिच्छेदमें तीर्थंकर महावीर द्वारा गुण-कर्मके आधार पर प्रतिपादित समाज-व्यवस्थाका दिग्दर्शन है। समाज-व्यवस्थाकै प्रमुख घटक परिवार, परिवारकी सीमाएं, दायित्व और अधिकार आध्यात्मिक साम्य, भावना, नेतिक विधि-विधानोंका निर्देश करते हुए अहिंसा, सत्य, अचौयं ब्रह्मचयं और अपरिमह पर आवृत महाबीरकी समाज-व्यवस्था सर्वदा और सर्वत्र सुख-शान्तिजनक, उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है, इसका कथन किया गया है।
इस प्रकार प्रथम खण्डमें तीर्थकर महावीर और उनकी देशनाका पूरा परिचय उपलब्ध है। ग्रन्थ-योजनाके समय यह खण्ड ५०० पृष्ठोंका कल्पित हुआ था, किन्तु लगभग ६४० पृष्ठोंमें वह समाप्त हुआ है।
२. श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्य तीर्थकर महावीरके सिद्धान्तों और वाङ्मयका अवधारण एवं संरक्षण उनके उत्तरवर्ती श्रमणों और उपासकोंने किया है । इस महान् कार्यमें बिगत २५०० वर्षों में लाखों श्रमणों तथा उपासकोंका योगदान रहा है। उन्हीं के त्याग और साधनाके फलस्वरूप भगवान् महावीरके सिद्धान्त और वाङ्मय न्यूनाधिक रूपमें हमें प्राप्त हैं । तीर्थक्षेत्र, मन्दिर, मूर्तियां, ग्रन्थागार, स्मारक आदि सांस्कृतिक विभव उन्हींके अटूट प्रयत्नोंसे आज संरक्षित है । इन सबका उल्लेख करनेके लिए विपुल सामग्रीकी आवश्यकता है, जो या तो विलुप्त हो गयी या नष्ट हो गयो या विस्मृत्तिके गर्त में चली गयी है । जो अवशिष्ट वाङ्मय, शिलालेख और इतिहास हमें सौभाग्यसे उपलब्ध हैं उन्हींपरसे तीर्थंकर महावीरकी उत्तराधिकारिणो परम्पराकी अवगति सम्भव है। ___ डॉक्टर शास्त्रोने इस उपलब्ध सामग्रीका आलोडन-विलोइन करके जिन आचार्यों और उनके वाङ्मयका परिचय प्राप्त किया है उन्हें तीन खण्डोंमें विभक्त किया है । इन्हीं खण्डोंका यहाँ परिचय प्रस्तुत है ।
दूसरा खण्ड 'श्रुतबराचार्य और सारस्वताचार्य है। इस खण्ड में दो परिच्छेद हैं-१. श्रुतधराचार्य और २. सारस्वताचार्य ।। १८ ; तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा