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शंखनामक उधोगशालामें शंखकी सफाई कर उसे शुद्धरूपमें उपस्थित किया जाता था| नेसप्यनिधिमें भवन, पुल एवं अन्य उद्योगगृह निर्मित करनेका कार्य सम्पन्न किया जाता था। इस प्रकार प्रियमित्र चक्रवर्तीके यहां नव प्रकारकी उद्योगशालाएं विद्यमान थीं। निधियोंके कार्योक वर्णनसे अवगत होता है कि वस्तुत: ये चक्रवर्तीको उद्योगशालाएं ही थीं, जिनसे विभिन्न प्रकारको भौतिक आवश्यकताएं पूर्ण की जाती थीं।
प्रियमित्र चक्रवर्ती इस वैभवको प्राप्त कर भी अनासक्त रहता था। उसे अर्य और काम दोनों ही पुरुषार्थ सदोष प्रतीत होते थे । पमं पुरुषार्थको ओर उसका विशेष झुकाव था। वह निरन्तर श्रावकधर्मका सेवन करता हुआ मन्दिर और मूर्तियोंके निर्माणमें भी संलग्न रहता था। प्रतिदिन देव-पूजन करता हुआ मुनियोंको प्रासक आहार देता था। यह अहर्निश अशुभ पत्तियोंका त्याग कर शुभ वृत्तियोंके प्राप्त करनेकी चेष्टा करता था। सुन्दर रमणियां, उच्च अट्टालिकाएं, छानवे करोड़ ग्राम, उद्योगशालाएं एवं गण-अश्वादि वेभव निस्सार प्रतीत होते थे। अनेक जन्मों में अजित धर्म-संस्कार उसे तीर्थकरत्वके बन्धके लिये प्रेरित कर रहे थे। ___ एक दिन वह चक्रवर्ती पुरजन-परिजनके साथ क्षेमकर तीर्यकरको वन्दनाके लिये चला ! समवशरणमें पहुँच उसने तीन प्रदक्षिणाएं दी और मनुष्यके कक्ष में बेठ तीर्थकरकी पूजा की । तीर्थकरको दिव्यध्वनि हो रही थी। आयु-वैभव, ऐश्वर्य, इन्द्रियसुख विद्युत्के समान क्षणभंगुर बसाये जा रहे थे। सात तत्व और नव पदार्थोके स्वरूपका विवेचन किया जा रहा था। चर्तुगतिके दुःखोंका वर्णन सुन चक्रवर्तीका उबुद्ध विवेक और अधिक जागृत हो गया और उसने संवेगसे प्रभावित हो निन्थ-दीक्षा धारण को । उसने नाना प्रकारके परीषह और उपसगोको सहा और आयुके अन्तमें प्राण-त्याग कर सहस्रार नामकद्वादशम स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामका महान् देव हुआ । वहाँसे चयकर मनुष्य-पर्याय प्राप्त की । नन्दभव : सफल हुई कामना-तीर्थकरत्वका बन्ध
प्रियमित्रके जन्ममें राजचक्रवत्तित्वको ठुकरा कर उन्हें धर्मचक्रवर्ती बनना अभीष्ट था । अतएव महावीरका जीव सभी प्रकारसे आत्म-शोधनमें प्रवृत्त हुआ। उसने स्वगसे च्युत हो छत्रपुर नामक नगरके राजा नन्दिवद्धन और उनकी पुण्यवती रानी वीरमसीके यहां पुत्र रूपमें जन्म ग्रहण किया। शिशु अपने रूपगुणोंसे जगतको आनन्दित करनेवाला था। अतएव पिताने उसका नाम नन्द रखा । पुत्र-जन्मोत्सव उत्साहपूर्वक सम्पन्न किया गया और क्रमशः किशोर
तोषकर महावीर और उनकी देशना : ५३