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अवस्थाको प्राप्त होनेपर शस्त्र और शास्त्र विद्याके अजंन हेतु उसे गुरुके आश्रममें प्रविष्ट कराया गया । विद्या और कलाओं में पाण्डित्य प्राप्त करनेके पश्चात् युवा होनेपर उसका राज्याभिषेक सम्पन्न किया गया। अपूर्व लावण्यवती कन्या के साथ उसका विवाह भी सम्पन्न हुआ। अतएव वह उत्तम भोगोंको मांगता हुआ राज्यका संचालन करने लगों ।
पूर्व जन्मोंमें की गई साधना के फलस्वरूप वह अपने सम्यक्त्वको उत्तरोत्तर निर्मल बनानेके लिए प्रयत्नशील रहने लगा संसारमें अनन्त पदार्थ हैं और वे दो वर्गों - जड़ एवं चेतनमें विभक्त हैं। जब और चेतनका भेदविज्ञान करना ही सम्यग्दर्शनका वास्तविक उद्देश्य है । 'स्व' और 'पर' का, आत्मा और अनारमाका, चैतन्य और जड़का जबतक भेद-विज्ञान नहीं होता है, तबतक 'स्व' रूपकी उपलब्धि नहीं मानी जा सकती है । 'स्व' रूपकी उपलब्धि होते ही यह आत्मा कर्मके बन्धनोंमें बंध नहीं सकती । जिसे आत्मबोध एवं चेतना - बोध हो जाता है, वही आत्मा यह निश्चयकर पाती है कि मैं शरीर नहीं हूँ, में मन नहीं हूँ, यह सब कुछ भौतिक है और है पुद्गलमय । इसके विपरीत मे चेतन हूँ, आत्मा हूँ, अभौतिक हूँ और पुद्गलसे सर्वथा भिन्न हूँ । आत्मा ज्ञानरूप है और पुद्गल जड़रूप । जबतक मात्मा और पुद्गलमें स्वरूपतः मेदानुभूतिका अनुभव नहीं किया जाता तबतक मध्यात्म क्षेत्रसे अज्ञान और मिध्यात्व दूर नहीं हो पाते । अज्ञान और मिथ्यात्व के निराकरणका साधन सम्यग्दर्शन मूलक सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे ही आत्मा यह निश्चय करती है कि पुद्गलका एक कण भी मेरा अपना नहीं है। मैं त्रिकालाबच्छित शुद्ध शुद्धरूप हूँ | शरीरादि पुद्गलद्रव्योंकी सत्ता सदा रहेगी, पर इनके प्रति जो आसक्ति या ममता है, उसे दूर करना ही पुरुषार्थं है । आत्मज्ञानकी उपलब्धि होनेके अनन्तर अज्ञान और मिथ्यात्व सहज में दूर हो जाते हैं ।
इस प्रकार चिन्तन करता हुआ वह धावकके द्वादश व्रत पालन करने में प्रवृत्त हुआ। वह पर्वदिनोंमें आरम्भका त्यागकर उपवास करता । मुनियोंको भक्तिपूर्वक आहारदान देता और चैत्यालयों में जिनेन्द्रदेवको महान पूजा करता था। उसकी समस्त अशुभ प्रवृत्तियोंका विरोध हो चुका था और उसका मन विकारोंके दूर होने से पवित्र हो गया था। वह परिमित रूपमें सांसारिक विषयभोगोंका सेवन करता था, पर उसको आन्तरिक प्रवृत्ति उससे विलग थी । कुछ समय तक राज्यकार्य संचालन करनेके अनन्तर नन्द भव्यजीवों सहित धर्म श्रवण हेतु श्रुतकेवल प्रोष्ठिल मुनिकी बन्दनाके लिये गया । उनके चरणों में बैठकर उसने उत्तमक्षमादि दश धर्मोके स्वरूपको सुना और चिन्तन किया :
५४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा