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"यह संसार अनन्त दुःखोंकी खान है। काम, क्रोध, लोभ, मोहादि सदा इसे विचलित करते है । इन्द्रियोंके विषय अपनी ओर आकृष्ट करनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहते हैं । अतएव भुझे इस राज्यवैभव और समस्त गृहस्थी के दायित्वका त्यागकर मात्म-शोधनमें प्रवृत्त होना चाहिये । अब इन सांसारिक प्रपंचोंमें फँसना मूर्खताके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।" इस प्रकार विचार कर नन्दने समस्त अंतरंग और बहिरंग परिग्रहका त्याग कर निग्रन्थ-दीक्षा ग्रहण की। वह मेद-विज्ञानका चिन्तन करता हुआ आत्मालोकसे भर गया । नन्द मुनिने द्वादश तपोंका मली प्रकार आचरण किया, जिससे उनकी तृष्णा, लालसा आदि सभी कुण्ठाएँ समाप्त हो गयीं । आलोचना, प्रतिक्रमण करते हुए उसने धर्मध्यान और शुक्लध्यानका अभ्यास आरम्भ किया। तीर्थंकर-सम्पत्तिको देनेवालो दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का सम्यक् चिन्तन कर धर्मनेता बनानेवाली तीर्थंकर - प्रकृतिका बन्ध किया । लौकिक नेता बनना सहज है, सरल है, पर आध्यात्मिक नेताका बनना सहज साध्य नहीं है । विरले ही व्यक्ति इस पदको प्राप्त कर पाते हैं ।
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नन्दमुनिने अपने मनसे समस्त विकारोंको निकाल बाहर किया। मन, वचन और कर्मको प्रवृतिको नियंत्रित किया । महिला, सत्य, संयम और शीलका आचरण ही मनुष्यको धर्मनेता बननेके लिये प्रेरित करता है ।
नन्दमुनिने उक्त श्रुतकेवलोके पादमूलमें स्थित होकर निम्नलिखित सोलह कारणभावनाओंका चिन्तन कर तीर्थंकर प्रकृतिका अर्जन किया :
(१) दर्शनविशुद्धि-सम्यग्दर्शनके साथ लोककल्याणकी भावना दर्शनविशुद्धि है । 'स्व' रूपकी आस्थाके हेतु जीवादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान परमा वश्यक है और इन तत्त्वोंके श्रद्धानार्थं आप्त, आगम एवं गुरुका श्रद्धान अपेक्षित है। आठ अंग सहित और पच्चीस दोष रहित आत्म-श्रद्धाका विकास करना दर्शन विशुद्धि भावना है। तीर्थंकरनाम - कर्मका बन्ध करानेवाले कारणों में दर्शनविशुद्धिका रहना अनिवार्य है ।
(२) विनयसम्पन्नता -- सम्यग्ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधन गुरु आदिके प्रति उचित आदर-सत्कार रखना विनयसम्पन्नता है । विनयके पाँच भेद है— दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार । सम्यग्दर्शन निर्दोष धारण करना तथा सम्यग्दृष्टिजीवों का यथासंभव सत्कार करना दर्शनविनय है । सम्यग्ज्ञानको धारण करना तथा सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंका यथोचित सत्कार करना ज्ञानविनय है । यथार्थमें ज्ञानविनय वही है, जिससे सम्यग्ज्ञानका विकास हो सके 1 श्रद्धा
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५५