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और भक्तिपूर्वक स्वाध्याय करना और मात्मविवेकको बागृत करना मानविनयके अन्तर्गस है। __ यथाशक्ति धिपूर्वक कल्याणकारी सभ्यश्चारित्रको धारण करना एवं सम्यक्चारित्रके धारी पुरुषों में पूज्य भाव रखना चारित्रविनय है। इन्द्रिय और मनोनिग्रहपूर्वक समताभावसे क्षुधा, तुषादिका कष्ट सहनकर अनशन, ऊनोदरादि सपोंमें प्रवृत्त होना तथा साधु-सपास्वधकि प्रांत पूज्य भाव रखना तपविनय है। अपनेसे गुणाधिक व्यकियोंमें भक्ति-भाव रखना, शिष्टता और नम्रतापूर्वक उनके साथ संभाषण करना, उच्चासन देना, उनकी आशा स्वीकार करना, उपचारविनय है। विनयगुणके धारण करनेसे आत्मशक्तिका विकास होता है और कषायें मन्द होती हैं।
(३) शीलवतानतिचार-अहिंसा, सत्य आदि व्रत हैं और इनके पालने में सहायक क्रोष, मान आदि कषायोंका स्थाग शील है । इनका निर्दोष रीतिसे पालन करना शीलवतानतिचारभावना है । आशय यह है कि शीलव्रतोंके पालन करने में मन-वचन-कायकी निर्दोष प्रवृत्ति शीलवस-अनतिचार है। शील आत्माका स्वभाव है। इस स्वभावसे भिन्न परमादोंका निरोष करना शीलवत. अनतिकारभावना है। इन्द्रिय और मनकी प्रवृत्तियोंको निरन्तर शुभ बनाये रखनेकी चेष्टा इस भावनाका लक्ष्य है।
(४) अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-जीवादि स्वतस्वविषयक सम्यग्ज्ञानमें निरन्तर समाहित रहना अभोक्षणशानोपयोग है। इस भावनाका आशय सप्त सत्त्वोंका निरन्तर अभ्यास और चिन्तन है । शावमें सदा उपयोगके रहने से मन संयमित रहता है और विषयों की ओर उसको प्रवृत्ति नहीं होती है । अत: वह विषयोंकी चाहको दाहसे अछूता रहता है। जैसे-जैसे शान और अनुभव वृद्धिंगत होते हैं, वैसे-वैसे आनन्दका लाभ होता है।
(५) अभीषणसंवेग-सांसारिक भोगसम्पदाएं दुःखका कारण हैं । उनसे निरन्तर भयभीत रहना अभीक्षणसंवेग है । संसारके विषयोंसे भयभीत रहते हुए धर्म, धर्मात्मा और धर्मके फलमें अनुराग करना संवेगभावना है।
(६) शक्तितः त्याग–अपनी शक्तिको विना छिपाये मोक्षमार्गमें उपयोगी आहार, अभय और शानदान देना यथाशक्ति त्याग है।
(७) शक्तिः तप-अपनी शक्तिको बिना छिपाये अनशन, ऊनोदर, वृसिपरिसंख्यान, रसपरित्याग आदि सप करना यथाशक्ति तप है। सम्यकप्रकार इच्छाओंका निरोध करना तप है । इस तपका पयाशक्ति आचरण करना ही इस भावनाका रहस्य है। ५६ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य-परम्परा