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14) साधुसमाधि-तपश्चर्या में अनुरक्त साधुबोके ऊपर वापत्ति आनेपर उसका निवारण करना और ऐसा प्रयत्न करना जिससे वे स्वस्थ रहें साधुसमाधि है।
(१) वैयावृत्यकरण-गुणी पुरुषोंके कष्टमें पड़ने पर उनके कष्टको दूर करनेका प्रयत्न करना यावृत्यकरण है। वैयावृत्यका अर्थ सेवा करना है। जब रोगादिके कारण कोई प्राणी अस्वस्थ हो जाय, उस समय उसके प्रधानको अडिग बनाये रखनेके लिये वेमावृत्ति आवश्यक होती है । यह दो प्रकारसे संभव है--भक्ति और करुणासे | जो दर्शन, शान, चारित्र, तपादि गुणोंसे उन्नत हैं, उसकी सेवा करना भक्तिसेवा है और गुण-दोषोंकी ओर दृष्टिपात न करके करुणा या दयाव सेवा करना करुणासेवा है।
(१०) अहमक्सि-अरहन्त भगवानकी उपासना करना अहंन्तभक्ति है। यह भक्ति ही चतुर्गतिके दुःखोंसे दूर कर सकती है और इसीके द्वारा सम्यक्त्व निमंल होता है।
(११) आचार्यभक्ति-दीक्षा शिक्षा देनेवाले गुरुकी उपासना करना आचार्यभक्ति है।
(१२) बहुश्रुतभक्ति-वादशांगवाणीके ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठीकी भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति है।
(१३) प्रवचनमक्ति–परिणामोंकी निर्मलतापूर्वक प्रवचन-जिनागममें अनुराग रखना प्रवचनभक्ति है।
(१४) आवश्यकापरिहाणि षट् बावश्यक क्रियाओंको यथासमय करते रहना आवश्यकापरिहाणि भावना है।
(१५। मार्गप्रभावना-रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गको स्वयं जीवनमें उतारना और समयानुसार उपयोगी कार्यों द्वारा सर्वसाधारण जनताका उसके प्रति आदर उत्पन्न करना मार्गप्रभावना है।
(१६) प्रवचनवात्सल्य-साधर्मी प्राणियोंमें निष्कपट भावसे प्रेम करना, यथाशक्ति आदर-सत्कार करना एवं निष्काम मावसे उनकी सहायता करना प्रवचनवात्सल्य भावना है।
नन्दमुनि तीर्थकरनाभकर्मको कारणभूत इन सोलह प्रकारको भावनाओंका चिन्तन करता रहा, जिनके फलस्वरूप उसने तीर्थकरनामकर्मका बन्ध किया ।' १. एदेहि सोलोहि कारणेहि जीवो तित्ययरगामागोदं कम्मं बंधवि (षट्कण्डागम) ।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ५७