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उसने सोलह कारणभावनाओंको अपनी जीवनचर्या में अनुस्यूत कर लिया और समभावोंसे शरीर त्याग कर अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें बाईस सागरकी मायुवाले अच्युतेन्द्रका पद प्राप्त किया। यहाँसे च्युत हो वह तीर्थंकर महावीरका पद प्राप्त करेगा |
इस प्रकार महावीरके जीवने आत्मोन्नति के पथमें अनेक प्रकारसे उन्नति और अवनतिके नकोरोंको सहा । शारीरिक पूर्णताके साथ आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त हुई । इसमें सन्देह नहीं कि सोर्थंकर बनने के लिये एक जन्मकी साधना नगण्य है। इसके लिये कई जन्मों तक साधना या तपश्चर्या करनी पड़ती है । शिकारी पुरुरवाभीलकी पर्यायमें उन्हें अहिंसा और श्रमकी जो सम्पत्ति प्राप्त हुई, उसीके प्रभावके फलस्वरूप धर्मनेता बननेके हेतु उन्होंने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया ।
उत्तरपुराण में आचार्य गुगले लिखा है..
संप्राप्य धर्ममाकर्ण्य निर्णीताप्तागमार्थकः । संययं संप्रपद्यासु स्वीकृतंकादशाकः || भावयित्वा भवध्वंसि तीर्थकृनामकारणम् । बद्ध्वा तीर्थकरं नाम सहो च्चै गोत्रकर्मणा ॥
धर्मका स्वरूप सुनकर उसने आप्त, आगम तथा पदार्थका निर्णय किया और संयम धारण कर शीघ्र ही ग्यारह अंगोंका पाठी बन गया । उसने तीर्थंकरप्रकृतिका बंध होने में कारणभूत और संसारको नष्ट करनेवाली दर्शनविशुद्धयादि सोलह कारणभावनाओंका चिन्तनकर उच्चगोत्रके साथ तीर्थंकरप्रकृतिका बंध किया |
१. उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ - संस्करण, ७४ व पर्व, श्लोक २४४-२४५.
५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा