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(७) अश्वरत्न (९.) चक्ररत्न (११) कांकण
(१३) छत्र
(८) दण्डरत्न (१०) चर्मरत्न (१२) मंग
(१४) असि
चक्रवर्ती दिग्विजय के लिये प्रस्थान करते समय मार्ग में शिविर स्थापित करता था । सैन्य प्रस्थानके पूर्व ही सेनाके पड़ावका स्थान निश्चित हो जाता था | स्थपति अपनी देख-रेख में शिविर निर्मित कराता था । शिविरके चारों ओर तम्बू लगाये जाते थे । मध्यमें चक्रवर्तीका सम्बू अनेक मंगलद्रव्योंसे युक्त रहता था । चक्रवर्तीके तम्बूको घेरे हुए सामन्तोंके तम्बू रहते थे और उसके पश्चात् बड़े-बड़े योद्धाओं एवं सामान्यसैनिकोंके। सैनिकोंके मनोरंजन एवं विश्राम के लिये वारांगनाओंके नृत्य होते थे । चक्रवर्ती अनेक प्रकारकी व्यूह - रचना में भी पटु था । भसंहृतव्यूह, गौड़व्यूह, चक्रव्यूह, दण्डव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, भोगव्यूह, नागव्यूह अदिकी रचनासे अवगत था ।
प्रियमित्र चक्रवर्तीको रत्न, देवियां, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाटघशाला, वर्तन, भोजन और वाहन — ये दश प्रकारके भोग उपलब्ध थे । वह अवतंसका माला धारण करता था । इस मालाके प्रभावसे सभी प्रकारके शारीरिक रोग दूर हो जाते थे । सूर्यप्रभछत्र द्वारा उसके शरीरकी कान्ति वृद्धिगत होती थी । अणिमा, महिमा, गरिमा, लत्रिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व – ये आठ सिद्धियाँ भी उसे प्राप्त थीं। भौतिक दृष्टिसे उसे किसी वस्तुकी कमी नहीं थी । नवनिधियाँ उसके भौतिक ऐश्वर्य की वृद्धि में प्रयुक्त थीं । आधुनिक अध्ययनको दृष्टिसे ये निषिय शिल्पशालाएँ ( Factories) प्रतीत होती हैं । कालनामक निषि --- यन्त्रशाला में ग्रन्थ- मुद्रण या ग्रन्थ-लेखनका कार्य होता था । चक्रवर्तीक राज्यव्यवस्था संबंधी सभी कागज पत्र इस शिल्पशाला में सुरक्षित रहते थे। महाकालनिधि शिल्पशालामें विभिन्न प्रकारके आयुध तैयार किये जाते थे । सर्वरत्ननिधिमें धय्या, आसन एवं भवनोंके उपकरण निर्मित होते थे । यों तो सर्वरत्ननिषि में प्रधानरूपसे, नील, पचराग, मरकतमणि, माणिक्य, होरक आदि विभिन्न प्रकारकी मणियोंको खानसे निकालकर उन्हें सुसंस्कृत रूपमें उपस्थित करनेका कार्य किया जाता था । पाण्डुनिधिमें धान्यों और रसोंकी उत्पत्ति निष्पन्न की जाती थी । पद्मनिषिनामक व्यवसाय- केन्द्रसे रेशमी एवं सूखी वस्त्र तैयार होते थे । दिव्याभरण एवं धातु-सम्बन्धी कार्य पिंगलनामक व्यवसायकेन्द्रमें सम्पन्न किये जाते थे | माणदनामक उद्योगगृहसे शस्त्रोंकी प्राप्ति होती थी । प्रदक्षिणावतं नामक उद्योगशालामें सुवर्ण तैयार किया जाता था । ५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी भाषायं परम्परा
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