________________
राधनसे विचलित कर दे। मैं आपना पराजय स्वीकार करता हैं और दिये गये कष्टोंके लिये आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। आप वास्तवमें धन्य हैं। आपका साहस और धैयं अतुलनीय है और आपकी साधना अनुपम है।"
तीर्थकर महावीरके धैर्य से हार मानकर संगमक वहाँसे चला गया। दूसरे दिन महावीरने उसी जगाँवमें भिक्षा-चर्याके लिये प्रवेश किया । पूरे छह महीनोंके बाद इन्होंने एक वृद्धाके यहाँ निर्दोष क्षीरान्नका भोजन ग्रहण किया।
वृजग्रामसे महावीर आलम्भिया आदि प्रसिद्ध नगरियोसे होते हुए श्रावस्ती पहुंचे और वहाँ नगरके उशनमें ध्यानस्थित हो गये। चमत्कारको नमस्कार
इन दिनों श्रावस्ती में स्कन्दका उत्सव चल रहा था । नगरनिवासी उत्सवमें इतने व्यस्त थे कि महावीरकी और किसीने लक्ष्य ही नहीं किया । समस्त गाँवस्कन्दके मन्दिरके पास एकत्र था। यहाँ एक प्रभावक घटना घटी। भक्तजन देवमूर्तिको वस्त्रालंकारोंसे सजाकर रथमें बैठाने जा रहे थे कि मूर्ति स्वयं चलने लगी। भक्तोंके आनंदका पार न रहा । थे समझे कि देव स्वयं रथमें बैठने जा रहे हैं। हर्ष के नारे लगाते हुए सब लोग मूतिके पीछे-पीछे चलने लगे। मूर्ति उद्यान में पहुंची और महावीरके चरणोंमें गिरकर वंदना करने लगी। उपस्थित जनसमुदायने हर्ष-ध्वनि की और महावीरको देवाधिदेव मानकर उनका महुमान किया और महिमा व्यक्त की। निर्विघ्न पारणा सम्पन्न
श्रावस्तीसे विहारकर महावीर कोशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, मिथिला आदि नगरों में परिभ्रमण करते हुए वैशाली पधारे और यहीं ग्यारहवाँ वर्षावास सम्पन्न किया। शालीके बाहर काममहावन नामक एक उद्यान था। इसी उद्यानमें महावीर चातुर्मासिक तप ग्रहणकर ठहरे ।
वैशालीका नगरसेठ प्रतिदिन महावीरके चरण-वंदन करने जाता और आहार ग्रहण करनेकी प्रतिदिन प्रार्थना करता । पर महावीर आहारके निमित्त नगरमें नहीं जाते । श्रेष्ठिने सोचा महावीरका मासिक तप होगा और महीना पूरा होने पर आहारके हेतु पधारेंगे । पर महावीर आहारके लिए नहीं उठे।
सेठने द्विमास-क्षपणको कल्पना की और दूसरे मासके गंतमें त्रिमासिक को । महावीर तीसरे महीनकी समाप्तिपर भी भिक्षाचर्याके लिये नहीं निकले। अब १६४ : दीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा