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उसने अनुमान किया कि महावीरका चातुर्मास क्षपण होगा। अतः चार महीनेके उपवासको समाप्त कर वे भिक्षाचर्या के लिये प्रस्थान करेंगे। वह अपने घर आकर चातुर्मास के अंत में महावीरकी प्रतीक्षा करने लगा । मध्याह्नकाल महावीर चर्याके लिये निकले और पिण्डेषगाके नियमानुसार वैशालीमें भ्रमण करते हुए उन्होंने एक गृहस्थके घरमें प्रवेश किया। गृहस्वामीने, जो कुछ रूखा-सूखा तैयार था, उसीसे महावोरकी पारणा करायी। महावीरने अत्यन्त संतोष और शान्ति के साथ पारणा ग्रहण की। सेठने गुता कि महावीरली पारणा अन्यत्र हो गयी, तो वह अपने भाग्यको दोष देने लगा | महावीरकी पारणा निर्विघ्न सम्पन्न होनेके कारण पञ्चाश्चर्य प्रकट हुए, जिससे वैशाली - निवासी अत्यन्त प्रसन्न थे ।
इस प्रकार तीर्थंकर महावीरने इस एकादश वर्षको साधनामें कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा की। उन्होंने साधुके अट्ठाईस मूलगुणों, तीन गुप्तियों, पांच समितियों आदिका पूर्णतया निर्वाह करते हुए त्याग, वैराग्य और संयमानुष्ठान किया । महावीरने आत्म संयम और उच्च भावनाओंमें रमण करनेकी पूरी चेष्टा की । आत्म शुद्धिके लिये प्रयत्नशील रहना ही जीवनका प्रधान उद्देश्य था । महावीर की यह साधना आत्मशुद्धिका प्रमुख साधन थी ।
द्वादशवर्ष-साधना : विचित्र अभिग्रह
संवर और कर्म-निर्जराके हेतु महावीर विचित्र अभिग्रह ग्रहण कर चयकि लिये निकलते थे और जब अभिग्रह पूरा नहीं होता, तो वे सन्तोषपूर्वक लौटकर साघनामें संलग्न हो जाते। उनके भीतर दिव्यप्रकाशके उदयका आरम्भ हो चुका था । अतएव वे अपनी समस्त शक्तियोंके विकास हेतु प्रयत्नशील थे । वे हिमालय के समान दृढ़ होकर उपवास आरम्भ करते और अनेक प्रकारके उपसर्ग आनेपर भी वे उनसे विचलित न होते । भय और रोषसे दूर अविचलभावसे यंत्रणाओंको सहन करते रहते थे ।
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महावीर क्षमाके अवतार थे । दुराचारियों, अत्याचारियों और अधर्मियोंको क्षमा प्रदानकर उन्हें सच्चे पथपर लगाते थे । वे अनार्यों में सद्व्यवहार और सम्यक्त्वके विकास हेतु भ्रमण करते और उन्हें भी सन्मार्ग पर अग्रसर होनेकी प्रेरणा देते थे ।
वैशालीसे महावीरने सूसुमारपुरकी ओर विहार किया। इस नगरके परिसरमें महावीरने अशोकवृक्ष के नीचे कायोत्सर्गं किया । यहाँसे महत्वीर भोगपुर और नन्दिग्राम होते हुए मेंद्रियग्राम पधारे। यहाँ एक गोपने तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १६५