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माताका नाम पृथ्वी और पिता नाम वसुभूति था । इनका गोत्र गौतम था । गौतमका व्युत्पत्तिजन्य अर्थ है - 'गोभिस्तमो ध्वस्तं यस्य' - बुद्धिके द्वारा जिसका अन्धकार नष्ट हो गया है अथवा जिसने अन्धकार नष्ट किया है। यों तो 'गौतम' शब्द कुल एवं वंशका वाचक है। ऋगवेद में भी गोतमनामसे अनेक सूक्त मिलते हैं। इस नामधारी अनेक व्यक्ति हो चुके हैं । इन्द्रभूति गौत्तमका व्यक्तित्व विराट् एवं प्रभावशाली था । दूर-दूर तक उनकी विद्वत्ताकी धाक विद्यमान थी । ५०० छात्र उनके पास अध्ययन करते थे । इनके व्यापक प्रभावके कारण ही सोमिल आयेंने इस महायज्ञका धार्मिक नेतृत्व इनके हाथ में सौंपा था । मगध- जनपदके सहस्रों नागरिक दूर-दूरसे इस यज्ञके दर्शन करने आये थे ।
राजगृहके निकट विपुलाचलपर निर्मित समवशरण में तीर्थंकर महावीरकी देशना सुननेके लिए असंख्य देव विमानों द्वारा पुष्पोंकी वर्षा करते हुए जा रहे थ े । आकाशमार्ग जयजयकारकी ध्वनिसे गूंजित था। जिस प्रकार छोटी-छोटी सरिताएँ बृहत् समुद्र में सम्मिलित होती हैं, उसी प्रकार नर-नारियोंके विभिन्न वर्ग इस सभामें सम्मिलित होनेके लिये आकूलित थे ।
निराशा और जिज्ञाशा
यज्ञ मण्डप में स्थित विद्वानोंने आकाशमार्गसे आते हुए देवगणोंको देखा, तो वे रोमांचित हो कहने लगे - " यज्ञ महात्म्यसे प्रभावित होकर आहुति ग्रहण करनेके हेतु देवगण आ रहे हैं ।" लक्ष लक्ष मानवोंकी आँखे आकाशकी ओर टकटकी लगाये देख रही थीं, पर जब देवविमान यज्ञ मण्डपके ऊपरसे होकर सीधे आगे निकल गये, तो यज्ञ-समर्थकों के बीच बड़ी निराशा उत्पन्न हुई । सबकी आंखे नीचे झुक गयीं, मुख मलिन हो गये और आश्चर्य के साथ सोचने लगे - "अरे ! देवगण भी किसीकी मायामें फँस गये हैं या भ्रम में पड़ गये हैं ? यज्ञ मण्डप छोड़कर कहाँ जा रहे हैं ?"
इन्द्रभूतिने देवविमानों को प्रभावित करनेकी दृष्टिसे वेद-मन्त्रोंका पाठकर तुमुल ध्वनि की, पर उनके अहंकारपर चोट करते हुए देवविमान सोधे निकल गये ।
इन्द्रभूतिको यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि ये सभी देवविमान महावीरकी समवशरण-सभा में जा रहे हैं । इन्द्रभूतिका मन अहंकारपर चोट लगनेसे उदास हो गया । उनका धर्मोन्माद मचल उठा । इसो समय सौधर्म - इन्द्र बटुकका रूप बनाये हुए इन्द्रभूत्ति के समक्ष पहुँचा और कहने लगा- "गुरुवर! आपकी विद्वत्ताकी यशोगाथा देशभर में व्याप्त है । वेद, उपनिषद्का
१८६ : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य परम्परा