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________________ } रहता है और न कर्मयुद्गल हो । दानों दोनांसे ही प्रभावित होते हैं । यही बन्ध है । आस्त्रय और बन्ध संसारके कारण हैं। आस्रवको कर्मबन्धका कारण माना गया है । संवर आस्रवका निरोध संवर हे । मुमुक्षु जीव कर्मके आसवके कारणोंको पहचान कर जब उनसे विरुद्ध वृत्तियोंका अवलम्बन लेता है, तो आत्रव रुक जाता है और आस्रवका रुकना हो संवर है । कर्मास्रवका निरोध मन वचन, कायके अप्रशस्त व्यापारके रोकने, विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करने, क्षमा आदि धर्मों का आचरण करने, अन्तःकरण में विरक्तिके जाग्रत होने और सम्यक्चारित्रका अनुष्ठान करने से होता है । कोई भी साधक भोग क्रियाका सर्वथा निरोध नहीं कर सकता । उठना, बैठना, सम्भाषण करना आदि जीवनके लिये अनिवार्य हैं। अतएव विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करनेसे संवर होता है। वस्तुतः आत्मसुरक्षाका नाम संदर है। जिन द्वारोंसे कर्मो का आस्रव होता है, उन द्वारोंका निरोध कर देना संवर कहलाता है । आसव योगसे होता है । अतएव योगकी निवृत्ति ही संवर है । शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आहारादिका ग्रहण करना बनिवायं रहता है, पर इन प्रवृत्तियों पर विवेकका नियंत्रण रहता है । संचरके छः हेतु हैं: (१) गुप्ति - अकुशल प्रवृत्तियोंसे रक्षा । (२) समिति – सम्यक् प्रवृत्ति | (३) धर्म - आत्मस्वरूप परिणति । (४) अनुप्रेक्षा - आत्म-चिन्तन । (५) परीषह्जय–स्वेच्छ्या क्षुधा, तृषा आदिको वेदनाका सहना । (६) चारित्र - समताभावकी आराधना | वस्तुतः नवीन कर्मोंका आत्मामें न आना ही संवर है । यदि नवीन कर्मोका आगमन सर्वदा जीवमें होता रहे, तो कभी भी कर्म-बन्धनसे छुटकारा नहीं मिल सकता है । मिरा निर्जराका अर्थ है जर्जरित कर देना या झाड़ देना । बद्ध कर्मोंको नष्ट कर देना या पृथक् कर देना निर्जरातस्य है। निर्जरा दो प्रकारकी होती है:(१) ओपक्रमिक या अविपाक निर्जरा गौर (२) अनोपक्रमिक या सविपाक निर्जरा । सीकर महावीर और उनकी देखना : ३७७
SR No.090507
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size14 MB
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