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आत्माकी निर्मलताका साधन है। इस ध्यानके समन भेदोंका साधन करनेसे रत्नत्रयगुण निर्मल होता है और कोको निर्जरा होती है। धर्मध्यानके चार भेद हैं-१. आज्ञा, २. अपाय, ३. विपाक और ४. संस्थान | आगमानुसार तत्त्वोंका विचार करना आज्ञाविचय, अपने तथा दूसरोंके राग-द्वेष-मोह आदि विकारोंको नाश करनेका चिन्तन करना अपायविचय, अपने तथा दूसरों के सुख-दुःखको देखकर कर्मप्रकृतियोंके स्वरूपका चिन्तन करना विपाकविचय एवं लोकके स्वरूपका विचार करना संस्थानावचयनामक धर्मध्यान है। इस धर्मध्यानके अन्य प्रकारसे भी चार भेद हैं-१. पिंडस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत । यह धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत जीवोंके सम्भव है । श्रेणि-आरोहणके पूर्व धर्मध्यान और श्रेणिआरोहणके समयसे शुक्लध्यान होता है । पिण्डस्य ध्यान
शरीर स्थित आत्माका चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। यह आत्मा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धसे रागवेषयुक्त है और निश्चयनयकी अपेक्षा यह बिलकुल शुद्ध ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूप है । निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अनादिकालीन है और इसी सम्बन्धके कारण यह आत्मा अनादिकालसे इस शरीरमें आबद्ध है । यो तो यह शरीरसे भिन्न अमूर्तिक, सूक्ष्म और चैतन्यगुणधारी है, पर इस सम्बन्धके कारण यह अमूर्तिक होते हुए भी कश्चित् मूर्तिक है । इस प्रकार परीस्थ आत्माका चिन्तन पिण्डस्थ ध्यानमें सम्मिलित है। इस ध्यानको सम्पादित करनेके लिए पांच धारणाएँ वणित है--१. पार्थिवो, २. आग्नेय, ३. वायवी ४, अलीय और ४. तत्त्वरूपवती । पापियो धारणा
इस धारणामें एक मध्यलोकके समान निर्मल जलफा बड़ा समुद्र चिन्तन करे; उसके मध्यमें जम्बूद्वीपके तुल्य एक लाख योजन चौड़ा और एक सहस्र पत्रवाले तपे हुए स्वर्ण के समान वर्णके कमलका चिन्तन करे । कणिकाके बीच में सुमेरु पर्वत सोचे। उस सुमेरु पर्वतके ऊपर पाण्डुकवनमें पाण्डक शिलाका चिन्तन करे । उसपर स्फटिक मणिका आसन विचारे । उस आसनपर पगासन लगाकर अपनेको ध्यान करते हुए कर्म नष्ट करनेके हेतु विचार करे । इतना चिन्तन बार-बार करना पाथिवी धारणा है। आग्नेयो धारणा
उसी सिंहासनपर बैठे हुए यह विचार करे कि मेरे नाभिकमलके स्थानपर ५४० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा