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सौभाग्यसे तीर्थंकर महावीरका समवशरण सौगन्धिकामें आ पहुंचा । सभी आबालवृद्ध उनको बन्दनाके लिए जाने लगे। गले मार, र तिहतका भी समवशरणके आनेका समाचार मिला। राजा अप्रतिहत भो आसन्नभव्य था। अतः यह भी अपने परिवारसहित समवशरणमें सम्मिलित हुआ। वह तीर्थकरको स्तुति करता हुआ निवेदन करने लगा-"प्रभो ! आपका जीवन मानव-समाजका आमूलचूल सुधार करने के लिए है । आप घोरतपस्वी हैं, वीतराग हैं, हितोपदेशी हैं। अपका उदेशामृत सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिका प्रबल साधन है । बड़े भाग्योदयके होनेपर ही मनुष्य आपकी धर्मपरिषदें सम्मिलित होता है। आपके दर्शनमात्रसे मेरे मानसचक्षु उद्घाटित हो गये हैं और मेरी आत्माको मूछित चेतना जागृत हो गयी है। अतएव आपके उपदेशके फलस्वरूप में कल्याणमार्ग ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हूँ।"
राजा अप्रतिहत्तने इन्द्रभूति गणधरसे व्रत ग्रहण करनेकी इच्छा व्यक्त की। कुमार महाचन्द्र तो पहलेसे ही संसारके प्रति अनासक्त था। कामिनी और काञ्चन इन दोनोंके आकर्षणका पहलेसे ही त्याग कर चुका था । वह अपनी भोगतष्णाको संयमितकर श्रावकके व्रताचरण में निरत था । वह संसारके वैभव और विषयसुखोंको विष मान रहा था। अतः महाचन्द्रने चैराग्य भावनाके उदित होते ही संसारकी मोह-ममतासे अपना नेह तोड़ दिया। उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण करने की अपनी इच्छा व्यक्त की। फलतः माता-पितासे अनुमति लेकर वह दीक्षित हो गया और पूर्ण संयमको आराधना करने लगा।
सौगन्धिकाकी धर्मसभाने अप्रतिहतके जागरणके साथ महाचन्द्रको भी आत्मशोधनमें प्रवृत्त किया। माया, मिथ्यात्व और निदानका दमनकर समत्वभावको प्राप्त हो महानन्द्र आमहितका पथिक बना । हेमाङ्गद बेश : जीवन्धर : निर्वाणमार्गके पथिक
तीर्थकर महावीरका समवशरण हेमांगद देशमें पहुँचा । यह प्रदेश वर्तमान में दक्षिणभारतमें कर्णाटकमें अवस्थित है। यहाँके सुरमलय उद्यानमें धर्मसभा जुड़ी थो' । जीवन्धरने आनन्द-भेरी बजवाकर अत्यन्त समारोह पूर्वक १. जिनपूजा विधायानु यर्धमानविशुद्धिकः ।
सूरादिम लयोद्यानायानं वीरजिनेशितः ।। श्रुत्वा विभूतिमद् गत्वा संपूज्य परमेश्वरम् । महादेवीतन्जाय दत्वा राज्यं यथाविधि: 11 वसुन्धरकुमाराय वीतभोहो महामनाः ।
मातुलादिमहीपालैनन्दायमधुरादिभिः ॥---उत्तरपुराण ७५॥६७९-६८१. २५४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा