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श्रोत्र प्राप्यकारी है। जब शब्द वातावरणमें उत्पन्न होता है, तो काके भोतर पहुंचता है, तब सुनायी पड़ता है।
वस्तुसः धोत्र स्पष्ट शब्दको सुनता है, अस्पृष्ट शब्दको भी सुनता है। नेत्र अस्पष्ट रूपको भी देखता है। ब्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों मशः स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्शको जानत्तो हैं ।' ज्ञानके भेद
सामान्यतः ज्ञानके दो भेद है:-(१) सम्यग्ज्ञान और (२) कुज्ञान । ज्ञान आत्माका विशेष गुण है, यह आत्मासे पृथक उपलब्ध नहीं होता। जिस ज्ञान द्वारा प्रतिभासित पदार्थ यथार्थ रूपमें उपलब्ध हो, उसे सुम्यग्ज्ञान कहते हैं। वस्तुत: जिस-जिस रूपमें जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं, उस-उस रूप में उनको जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यक् पदसे संशय, विपर्यय, अगध्यवसायको निराकृति हो जाती है । यतः ये गान सम्यक नहीं है। सम्यग्ज्ञानका संबंध आत्मोत्यानके साथ है । जिस जानका उपयोग आरम-विकासके लिये किया जाता है और जो परपदार्थोसे पृथक कर आत्माका बोध कराता है, वह सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानके पाँच भेद है:
(१) मतिज्ञान-इन्द्रिय और मनके द्वारा यथायोग्य पदार्थोको जाननेवाला।
(२) श्रुतशान-श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम होनेपर, मन एवं इन्द्रियोंके द्वारा अधिगम ।
(३) अवधिज्ञान-परिमित रूपी पदार्थको इन्द्रियोंकी सहायताके बिना जाननेवाला ।
(४) मनःपर्ययज्ञान-परके मनमें स्थित पदार्थोंको जाननेवाला । (५) केवलज्ञान-समस्त पदार्थोको अवगत करनेवाला ज्ञान 1
कुशान तीन है:-(१) कुमति, (२) कुश्रुत और (३) कुअवधि । मान और प्रमाण-विमर्श
यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान और प्रमाण में व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। शान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य | ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकारका होता है । सम्यक् निर्णायक शन यथार्थ होता है । संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि अयथार्थ ज्ञान हैं । अतएव ये प्रमाणभूत नहीं हैं।
१. पुढे सुर्गेदि सई अपुटुं व पस्सदे हों। गंध रस च फासं पटुमपट्ट बियाणादि ।
-सर्थिसिद्धि १-१९ उत्त. तीर्थकर महागीर और उनकी देवामा : ४२१