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खोदों करणों का उपयोग - अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका उपयोग मिध्यात्वक मौके निषेकोंको घटाना है । अधःकरण में परिणामोंकी अनन्तगुणी विशुद्धिके साथ नवोन बन्धको स्थितिका घटना प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग में अनन्तगुणो वृद्धिका होना एवं अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागका अनन्तवाँ भाग घटना-रूप क्रियाएँ होती हैं। अपूर्वकरण में सत्ता में स्थित पूर्वकर्मों की स्थिति प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में उत्तरोत्तर क्षोण होती है | अतः स्थितिकाण्डका घात होता है तथा प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमें उत्तरात्तर पूर्वकर्मों का अनुभाग घटने से अनुभागकाण्डक भी क्षीण होता है । गुणश्रेणोके काल में क्रमशः असंख्यातगुणित कर्म निर्जराके योग्य होते हैं । अतः गुणश्रेणि निर्जरा होती है । अपूर्वकरण के पश्चात् अनिवृत्तिकरण आता है । उसका काल अपूर्वकरण के कालसे संख्यातवें भाग होता है। अनन्तर अभिवृत्तिकरणकालके पोछे उदय आते योग्य मिथ्यात्वकर्मा के निकोंका अन्तर्मुहुर्त के लिये अभाव होता है । मिध्यात्वके जो निषेक उदयमें आनेवाले थे उन्हें उदयके अयोग्य किया जाता है।
सम्यग्वर्शनको उत्पत्तिके कारण- कारण दो प्रकार के होते हैं: - (१) उपादानकारण और (२) निमित्तकारण । जो स्वयं कार्यरूपमें परिणत होता है, वह उपादान कारण है और जो स्वयं कार्य की सिद्धिमें कारण होता है वह निमित्तकारण है । अन्तरंग और बहिरंगके भेद निमित्तके भी दो भेद है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका उपादानकारण आसन्न भव्यता; कर्महानि; संज्ञित्व; शुद्धपरिणाम और देशना आदि विशेषताओंसे युक्त आत्मा है । अन्तरंग निमित्तकारण सम्यक्त्वको प्रतिबन्धक अनन्तानुबन्धि का मान-मायादि, सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम है । बहिरंग निमित्तकारण शद्गुरु आदि हैं । अन्तरंग निमित्तकारणके मिलने पर सम्यग्दर्शननियमतः होता है परन्तु वहिरंग निमित्तके मिलने पर सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी ।
नरकगति में तीसरे नरक तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, और तोयवेदना अनुभव ये तीन चतुर्थ से सप्तम नरक तक जातिस्मरण और तोयवेदनानुभव ये दो; तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन ये तीन देवगतिमें बारहवें स्वर्ग तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनकल्याणदर्शन और देवऋद्धिदर्शन ये चार, त्रयोदश स्वर्गसे पोडश स्वर्ग तक देवऋद्धिदर्शनको छोड़कर शेष तीन एवं उसके आगे नवम ग्रैवेयक तक जातिस्मरण तथा धर्मश्रवण से दो बहिरंग निर्मित है। ग्रैवेयकसे ऊपर सम्यग्दृष्टि
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ४९५