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अपना स्वतन्त्र, स्वाधीन, सम्पतिका निकुछ और उपादेय नहीं मानता | आत्मामें पर-पुद्गल के सम्बन्धसे विकार हैं अथवा होते हैं, वे वास्तवमें आत्मा नहीं हैं । शुद्ध आत्माका स्वरूप तत्त्वतः उन सभी विकारोंसे रहित है । इस प्रकारको निःशंक और निश्चल आत्मा सभी प्रकारको आकांक्षाओंसे रहित होती हैं । अतएव सम्यग्दृष्टि सांसारिक सुखकोया योगोंकी आकांक्षा नहीं करता | निर्विचिकित्सा - अंग
मुनिजन देहमें स्थित होकर भी देह-सम्बन्धी वासना अतीत होते हैं। अतः वे शरीरका संस्कार नहीं करते। उनके मलिन शरीरको देखकर ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है । वस्तुतः मनुष्यका अपवित्र देह भी रत्नत्रयके द्वारा पूज्यताको प्राप्त हो जाता है। अतएव मलिन शरीरको बोर व्यान न देकर रत्नत्रयपूत आत्माकी ओर दृष्टि रखना और वाह्य मलिनतासे जुगुप्सा या ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है । यों तो विचिकित्सा के अनेक कारण हो सकते हैं, पर सामान्यतया इन कारणों को तान भागोंमें विभक्त किया जा सकता है : - ( १ ) जन्मजन्य, (२) जराजन्य और (३) रोगजन्य |
अदृष्टि-अंग
सम्यग्दृष्टिकी प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है। वह किसीका अन्धानुकरण नहीं करता। वह सोच-विचारकर प्रत्येक कार्यको करता है। उसकी प्रत्येक क्रिया आत्माको उज्ज्वल बनाने में निमित्त होती है । वह किसी मिथ्यामार्गी जीवको अभ्युदय प्राप्त करते हुए देखकर भी ऐसा विचार करता है कि उसका वह वैभव पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों का फल है, मिथ्यामार्ग के सेवनका नहीं । अतः वह मिथ्यामार्ग की न तो प्रशंसा करता है और न उसे उपादेय ही मानता है । यह श्रद्धालु तो होता है, पर अन्धश्रद्धालु नहीं । अमूढदृष्टि अन्धश्रद्धाका पूर्ण त्याग करता है । उपगूहन-अंग
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग स्वाभावतः निर्मल है । यदि कदाचित् अज्ञानी अथवा शिथिलाचारियों द्वारा उसमें कोई दोष उत्पन्न हो जाय - लोकापवादका अवसर आ जाय तो सम्यग्दृष्टि जीव उसका निराकरण करता है, उस दोषको छिपाता है। यह क्रिया उपगूहन कहलाती है। अज्ञानी और अशक्त व्यक्तियों द्वारा रत्नत्रय और रत्नत्रयके धारक व्यक्तियों में आये हुए दोषोंका प्रच्छादन करना उपगूहन अंग है।
१. स्वभावतोऽशुचौ काये - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पथ १३.
वीर्थंकर महावीर और उनकी देशमा ५०३