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सम्यग्यदृष्टि गुणी, संयमी, मानी और धर्मात्मा व्यक्तियोंकी समुचित प्रशंसा करता है उनके उत्साहको वृद्धि करता है और यथाशक्ति धर्माराधनके लिए सहयोग प्रदान करता है । इस जन्य नाग हमण भी। जिसका अर्थ आत्मगुणोंकी वृद्धि करना है। स्थितोकरण-अंग
सांसारिक कष्टोंमें पड़कर, प्रलोभनोंके वशीभूत होकर या अन्य किसी प्रकारसे बाधित होकर जो धर्मात्मा कि अपने धर्मसे व्युत होनेवाला है अथवा चारित्रसे भ्रष्ट होने जा रहा है, उसका कष्ट निवारण करना अथवा भ्रष्ट होनेके निमित्तको हटाकर उसे सिार करना स्थितीकरण-अंग है । __ साधर्मी बन्धुको धर्मश्रद्धा और आचरणसे विचलित न होने देना तथा विचलित होते हुओंको धर्ममें स्थित करना भी स्थितीकरण है। वात्सल्य-अंग
धर्मका सम्बन्ध अन्य सांसारिक सम्बन्धोंसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह अप्रशस्त रागका कारण नहीं, किन्तु प्रकाशकी ओर ले जाने वाला है । साधर्मी बन्धुओंके प्रति उसी प्रकारका आन्तरिक स्नेह करना, जिस प्रकार गाय अपने बछड़ेसे करती है।
वस्तुतः साधर्मी बन्धुओंके प्रति निश्छल और आन्तरिक स्नेह करना वात्सल्य है। इस गुणके कारण साधर्मी भाई निकट सम्पर्क में आते हैं और उनका संगठन दृढ़ होता है । धूर्तता मायाचार, वंचकता आदिको छोड़कर सद्भावनापूर्वक साधर्मियोंका आदर, सत्कार, पुरस्कार, विनय, वैयावृत्त्य, भक्ति, सम्मान, प्रशंसा आदि करना वात्सल्य है। प्रभावना-अंग
जगतमें वीतराग-मार्गका विस्तार करना, धर्म-सम्बन्धी भ्रमको दूर करना और धर्मको महत्ता स्थापित करना प्रभावना है।
जिनधर्म-विषयक अज्ञानको दूरकर धर्मका वास्तविक ज्ञान कराना प्रभावना है। देव, शास्त्र और गुरुके स्वरूपको लेकर जनसाधारणमें जो अज्ञान वर्तमान है. उसे दूर करना प्रभावनाके अन्तर्गत है।
सम्यग्दृष्टि रत्नत्रयके तेजसे आत्माको प्रभावित करते हुए दान, तप, विद्या, जिनपूजा, मन्त्रशक्ति बादिके द्वारा लोकमें जिनशासनका महत्व प्रकट करता हैं। जिनशासनकी महिमा जिन पिन कार्योंसे अभिव्यक्त होती है, उन उन कायोका याचरण सम्पग्दष्टि करता है। ५०४ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा