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सामाजिक आचरणके लिए आत्मौपम्य दृष्टि अपेक्षित है । प्रत्येक आत्मा तात्त्विक दृष्टिसे कम है। अतः , घान, सौर मासे किको ग स्वयं सन्ताप पहुँचाना, न दूसरेसे सन्ताप पहुंचवाना, न सन्ताप पहुंचानेके लिए प्रेरित करना नैतिक मूल्योंकी व्यवस्थामें परिगणित है।
हमारे मनमें किसीके प्रति दुर्भावना है, तो मन अशान्त रहेगा; नाना प्रकारके संकल्प-विकल्प मनमें उत्पन्न होते रहेंगे और चित्त क्षुब्ध रहेगा । अतएव समाजवादको प्रतिष्ठाके हेतु प्रत्येक सदस्यका आचरण और कार्य दुर्भावना रहित अत्यन्त सावधानीके साथ होना चाहिए । नैतिक या अहिंसक मूल्योंके अभावमें न व्यक्ति जोवित रह सकता है, न परिवार और न समाज ही पनप सकता है । अपने अस्तित्वको सुरक्षित रखने के लिए ऐसा आचार और व्यवहार अपेक्षित होता है, जो स्वयं अपनेको रुचिकर हो। व्यक्ति, समाज और देशके सुख एवं शान्तिकी आधारशिला अध्यात्मवाद है। और इसके साथ अहिंसा, मंत्री और समताकी कड़ी जुड़ी हुई है | जो अभय देता है वह स्वयं भी अभय हो जाता है । जव दूसरोंको पर माना जाता है, तब भय उत्पन्न होता है और जब उन्हें आत्मवत् समझ लिया जाता है, तब भय नहीं रहता। सब उसके बन जाते हैं और वह सबका बन जाता है । अतएवं समताकी उपलब्धिके लिए तथा समाजवादको प्रतिष्ठित करनेके लिए निम्नलिखित तीन आधारोंपर जोवन-मूल्यों को व्यवस्था स्वीकार करनी चाहिए। मूल्यहीन समाज अत्यन्त अस्थिर और अव्यवस्थित होता है। निश्चयतः मूल्योंकी व्यवस्था हो समाजवादको प्रतिष्ठित कर सकती है।
१. स्वलक्ष्य मूल्य एवं अन्तरात्मक मूल्य-शारीरिक, आर्थिक और श्रम संबंधी मूल्योंके मिश्रण द्वारा जीवनको मूलभूत प्रवृत्तियोंसे ऊपर उठकर तुष्टि, प्रेम, समत्ता और विवेकको दृष्टिमें रखकर मूल्योंका निर्धारण ।
२. शाश्वत एवं स्थायो मूल्य–विवेक, निष्ठा, सद्वृत्ति और विचारसागजस्यकी दृष्टिसे मल्य निर्धारण । इस श्रेणी में क्षणिक विषयभोगको अपेक्षा शाश्वतिक आध्यात्मिक मूल्यों का महत्त्व । ज्ञान, कला, धर्म, शिव, सत्य सम्बन्धी मूल्य ।
३. सृजनात्मक मूल्य-उत्पादन, श्रम, जोबनोपभोग आदिसे सम्बद्ध मूल्य ।
संक्षेपम समाजवादको प्रतिमा भौतिक सिद्धान्तोंके आधारपर सम्भव न होकर अध्यात्म और नैतिकताके आधारपर ही सम्भव है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ५९५