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(५) स्वदेह परिमाण है, (६) भोक्ता है, (७) संसारी है, (८) सिद्ध है और (९) है स्वभावसे उर्ध्वं गमन करनेवाला | "
संसार में जीवोंकी संख्या अनन्त है । प्रत्येक शरीर में विद्यमान जीव अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है और इस अस्तित्वका कभी संसार अथवा मोक्षमें विनाश नहीं होता। जोव में रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गलके धर्म नहीं पाये जाते हैं । अतएव वह स्वभावसे अमूर्तिक है, फिर भी प्रदेशोंमें संकोच और विस्तार होनेसे वह अपने छोटे-बड़े शरीरके परिमाण हो जाता है ।
वात्मसिद्धि
यह प्रश्न निरन्तर उठाया जा रहा है कि आत्मा शरीरके अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं है । जब आत्म-तत्त्व नहीं, तो फिर संसार, बन्ध और मोक्षकी आवश्यकता हो क्या है ? अतएव पृथ्वी, जल, वायु और आकाशके अतिरिक्त आत्म-तत्त्व नहीं है । इन चारों भूतोंके संयोगसे ही चेतन्यशक्तिकी उत्पत्तिहोती है, जिस प्रकार गुड़, जौ, आदिके संयोगसे मादकशक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार इन चारों भूतोंके संयोगसे इस शरीररूपी यन्त्रका संचालन उत्पन्न हो जाता है ।
देहात्मवाद या अनात्मवादके अनुसार शरीर ही आत्मा है, इससे भिन्न कोई आत्मा नहीं | अतएव पुनर्जन्म और परलोकका अभाव है। यदि शरीरसे भिन्न कोई आत्मा है और मरनेपर यह आत्मा परलोक चली जाती है, तो बन्धुबान्धवोंके स्नेहसे आकृष्ट हो, वह वहाँसि लौट क्यों नहीं आती है। हमें इन्द्रि यातीत कोई आत्मा दिखलायी नहीं पड़ती । अतः भूतचतुष्टय के संयोग से उत्पन्न शक्ति- विशेष ही आत्मा है ।
प्रत्यक्ष द्वारा भौतिक जगत्का ज्ञान प्राप्त होता है । यह जगत् चार प्रकारके भौतिक तत्त्वोंसे बना हुआ है । वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये चार ही भौतिक तत्त्व हैं । इन तत्त्वोंका ज्ञान हमें इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त होता है । संसारके जितने द्रव्य हैं, वे सभी इन चार तत्त्वोंसे बने हुए हैं।
उत्तरपक्ष
यह जीव अपने शरीरमें सुखादिककी सरह स्वसंवेदनसे जाना जाता है । क्योंकि उसके स्व-संविदित होने में कोई भी बाधक कारण नहीं है और दूसरी
१. जीवो उवओोगमओ बमुति कत्ता सदेह परिमाणो ।
भोत्ता संसारत्नो मुतो सो विस्वसोखगई ॥ द्रव्यसंग्रह, गा० २.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३३३