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बात यह है कि बुद्धिपूर्वक कार्य - यार देखा जाता है। स्तः जिस प्रकार अपने शरीर में जीव है, उसी प्रकार दूसरेके शरीर में भी जीव है, यह अनुमानसे उसे जाना जाता है | तत्काल उत्पन्न हुआ बालक जो माताके स्तन पीता है, पूर्वभवका संस्कार छोड़कर अन्य कोई भी सिखानेवाला नहीं है । आत्मा अमूर्ति है और ज्ञानके द्वारा ही जानी जाती है।
भूतचतुष्टयके संयोग से जोन उत्पन्न होता है, यह कथन भी निराधार है, क्योंकि बटलोही में दाल बनाते समय जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी इन चारों तत्त्वों का संयोग है, पर चेतनकी उत्पत्ति नहीं होती है। गुड़ आदिके सम्बन्धसे होनेवाली जिस अचेतन उन्मादिनो शक्तिका कथन किया है, वह उदाहरण चेतन के विषय में लागू नहीं होता ।
भूतचतुष्टयरूप आत्म-तत्वकी सिद्धि सम्भव नहीं है । यतः पृथ्वी, अप, तेज और वायु ये तत्त्व हैं। इनके समुदायसे शरीर, इन्द्रिय और विषयाभिलाष अभिव्यक्त होती है । यह अभिव्यक्ति किसकी है? सत्की या असत्की अथवा सद्-असद्रूपकी ? प्रथम पक्ष में अनादि और अनन्त चेतन्यकी सिद्धि हो जायगी। दूसरी बात यह है कि सद् चैतन्यकी अभिव्यक्ति माननेपर 'परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावः यह भी स्वतः खण्डित हो जायगा । असद् चैतन्यकी अभिव्यक्ति तो मानी नहीं जा सकती, क्योंकि किसी असद वस्तुको अभिव्यक्ति नहीं देखी जाती । कथंचित् सद्-असद् माननेपर परमतका प्रवेश हो जायगा 1
भूतचतुष्टयको चैतन्यके प्रति उपादानकारण माना जाय, या सहकारीकारण ? उपादानकारण तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि चैतन्यके साथ भूतचतुष्टयका अन्वय ही नहीं। जिस वस्तुका जिसके साथ अन्वय रहता है, वही वस्तु उसका उपादान होती है। जैसे मुकुटका निर्माण स्वर्णके होनेपर होता है, अतः स्वर्णका मुकुटके साथ अन्वय माना जायगा, पर भूतचतुष्ट्यके रहने से तो आत्माकी उत्पत्ति नहीं होती। अतः भूतचतुष्टयको आत्माका उपादान नहीं माना जा सकता। दूसरी बात यह है कि संसार में सजातीय कारणसे सजातीय कार्यको उत्पत्ति देखी जाती है, विजातीयकी नहीं। जब भूतचतुष्टय स्वयं बचेतन है, तो चैतन्यकी उत्पत्तिमें यह कारण कैसे हो सकता है ? और यह कहना भी भ्रान्त है कि चैतन्यशक्ति भी शरीरके नाशके साथ ही नष्ट हो जाती है, क्योंकि पूर्वभवको स्मृति आनेसे पुनर्जन्मकी सिद्धि होती है ।
चैतन्य आत्माका धर्म नहीं, शरीरका है; यह कथन भी निराधार है। जो यह कहा जाता है कि पंचेन्द्रिय विषयोंका उपभोग ही जीवन सर्वस्व है, स्वर्गनरक आदिकी स्थिति सिद्ध ही नहीं होती, अतः शरोरसे भिन्न आत्मा नामका
३३४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा