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कोई पदार्थ अनुभवमें नहीं आता है। यह सब कखन भी मिथ्या है, क्योंकि जन्मसे पूर्व और पश्चात् भी आत्माका अस्तित्व सिद्ध है। चेतन आत्माका अस्तित्व सिद्ध हो जानेपर पुण्य-पाप, सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक आदि सभी सिद्ध होते हैं । आत्माके कर्त्ता और मोक्ता होनेसे भोगवादका समर्थन स्वयं निरस्त हो जाता है ।
मनुष्य विषय और कषायोंके अधीन होकर जैसा शुभाशुभ कर्म करता है, उसीके अनुसार वह पुण्य और पाप अर्जन करता है। जब अशुभका उदय आता है, तो प्रतिकूल सामग्रीके मिलनेसे दुःखानुभूति होती है और जब शुभका उदय आता है, तो अनुकूल सामग्रीके मिलनेसे सुखानुभूति होती है। सुख और दुःखका कर्ता एवं भोक्ता यह आत्मा स्वयं ही सिद्ध है। यदि संसार में पुष्य, पाप और शुभाशुभकी स्थिति न मानी जाय, तो एक व्यक्ति सुन्दर, रूपवान और प्रिय होता है, तो दूसरा व्यक्ति कुरूप अप्रिय और नाना विकृतियों से पूर्ण होता है, यह कैसे संभव होगा ? एक हो माता-पिताकी विभिन्न सन्तानों में विभिन्न गुणोंका समावेश पाया जाता है। एक पुत्र प्रतिभाशाली और सच्चरित्र है, तो दूसरा निर्बुद्धि और दुराचारी। एक धनी है, तो दूसरा दरिद्र है । एक दुःखी है, तो दूसरा सुखी है। इस प्रकारकी भिन्नता कर्म वैचित्र्य के बिना सम्भव नहीं है । जिस प्रकार होता है. पह की भोगसामग्री प्राप्त करता है। अतएव जिस प्रकार कृषक खेतमें उत्पन्न हुई फसलमेंसे कुछ धान्य बीजके लिए रख छोड़ता है और शेषको उपभोगमें ले आता है, उसी प्रकार शुभोदयके फलको भोगनेके अनन्तर इस शरीर द्वारा तपश्चरण आदिकर पुनः शुभोदयका अर्जन करना आवश्यक है। भोगोंका त्याग किये बिना साधना सम्भव नहीं और न बिना साधनाके उत्तम भोगोंका मिलना ही सम्भव है | अतएव पुष्प- पाप, स्वर्ग-नरक आदिका विश्वास करना और पुनर्जन्म मानना अनुभव -संगत है ।
तर्क द्वारा भी जीवकी सिद्धि होती है। जीवित शरीर आत्म-सहित्त है, क्योंकि श्वासोच्छ्वास वाला है । जो आत्म सहित नहीं है, वह पूजा श्वासोच्छुवास सहित भी नहीं है, जैसे घटादिक । अथवा जीवित शरीर आत्म-सहित है, क्योंकि वह प्रश्नोंका उत्तर देता है, जो बात्मसात नहीं है उत्तर भी नहीं देता, जेसे घटादिक । इस प्रकार केवल व्यतिरेकी अनुमानप्रमाणसे भी जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है ।
ate अनादिनिधन है । यतः यह अस्तित्ववान होनेपर कारणजन्य नहीं । जो जो पदार्थ अस्तित्ववान होनेपर कारणजभ्य नहीं होते, वे वे अनादिनिधन होते हैं, जैसे पृथ्वी - आदि। और जो अनादिनिधन नही होते वे अस्तित्ववान
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २३५