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हैं और धर्म, अधर्म एवं आकाश ये तीन द्रव्य अनेक भेदस्वरूप न होकर एकएक अखण्ड द्रव्य है । जो गुण अपने समस्त भेदों में रहकर अन्य द्रव्य में न पाया जाय वही विशेषगुण लक्षणस्वरूप होता है, तथा इसीके द्वारा द्रव्यकी पहचान होती है ।
इन छः द्रव्योंमें जीव और अजीव द्रव्य प्रधान हैं, यतः सभी द्रव्य किसी न किसी रूपमें इन दोनों द्रश्योंके हेतु कार्यरत रहते हैं । प्रखमतः जीवद्रव्यका विवेचन किया जाता है:
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जीवद्रव्य स्वरूप
जीव और अजीवका सम्पर्क ही ऐसी विभिन्न शक्तियों का निर्माण करता है, जिनके कारण जीवको नाना प्रकारकी अवस्थाओंका अनुभव करना पड़ता है। यदि यह सम्पर्क धारा अवरुद्ध हो जाय और उपन्न हुए बन्धनोंको जर्जरित या नष्ट कर दिया जाय, तो जीव अपनी शुद्ध बुद्ध और मुक्त अवस्थाको प्राप्त हो सकता है ।
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जीव इन्द्रिय- अगोचर ऐसा तत्त्व है, जिसकी प्रतीति अनुभूति द्वारा ही सम्भव है। जीवको हो आत्मा कहा जाता है । प्राणियोंके अचेतन तत्त्वसे निर्मित शरीर के भीतर स्वतन्त्र आत्मतत्त्वका अस्तित्व है और यह आत्मतत्व ही चेतन या उपयोगरूप है। आत्मा स्वतन्त्र और मौलिक है। उपयोग जीवका लक्षण है और उपयोगका अर्थ चैतन्य परिणति है। चैतन्य जीवका असाधारण गुण है, जिसके कारण वह समस्त जड़ द्रभ्योंसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है | बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्यके ज्ञान और दर्शन रूपसे दो परि
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मन होते हैं । जब चैतन्य स्वसे भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है, उस समय वह ज्ञान कहलाता है और जब चैतन्य मात्र ज्ञेयाकार रहता है, तब वह दर्शन कहलाता है । जीव असंख्यात प्रदेशवाला है और अनादिकालसे सूक्ष्म कार्मण शरीरसे सम्बद्ध है | अतः चैतन्य युक्त जीवकी पहचान व्यवहार में पाँच इन्द्रिय, मन-वचन-कायरूप तीन बल तथा श्वासोच्छ्वास और आयु इस प्रकार दश प्राणरूप लक्षणोंको हीनाधिक सत्ताके द्वारा ही की जा सकती है ।"
यों तो जीव में अनेक गुण हैं, पर उसको कत्तुत्व और भोक्तृत्त्व शक्तियाँ प्रधान हैं । (१) जीव जीव है, (२) उपभोगरूप है. (३) अमूर्तिक है, (४) कर्त्ता है,
१. पंच वि इंदियपाणा मनवचकायेसु तिष्णि अलपाणा ।
आणपाणयाणा आजगपाणेण होंति दस पाणा ॥ गो० जी० १२९.
३३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा