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पूर्णता और अपूर्णताका है । वीतरागताकी चरम परिणति हो पूर्णता है और देशना पूर्णताको स्थितिमें ही संभव होती है। साधनाके समयमें तो महावीर प्रायः मौन रहे। उन्होंने मौन रहकर ही विभिन्न प्रकारके उपसर्ग और परीषहोंको जीता । मौन साधना ही आत्माके आवरणोंको हटाने में समर्थ होती है ।
काम, क्रोध, मद, लोभ और मोहादि अनन्त विकृतियोंके मूल बीज हैंराग और द्वेष । साधना इसी राग-द्वेषसे मुक्त होनेको दिशामें पुरुषार्थ है। जब आत्मा विकृतियोंसे मुक्त होकर अपने विशुद्ध मूलस्वरूपमें पहुंच जाती है, तो वह सदाके लिए परमशुद्ध बन जाती है। समस्त पदार्थोकी त्रिकालवर्ती गुणपर्याएँ प्रतिभासित होने लगती हैं। यही अवस्था सीर्थकर, सर्वज्ञ और वीतरागकी होती है। महावीरने केवलज्ञान प्राप्त कर विरासतके रूपमें मिले धर्मका अनन्त गुणात्मक रूपमें प्रवचन किया। शेयस्वरूप प्रवचन
तीर्थंकर महावीर अपने समयके महान् तपस्वी ही नहीं थे, बल्कि एक उच्चकोटिके विचारक तत्त्वान्वेषी थे। उन्होंने धर्म, और दार्शनिक विचारोंको साधु-जीवनके चरमोद्देश्य मुक्तिके साथ निबद्ध कर क्रियात्मक रूप दिया। बतलाया कि संसारके बन्धनमें पड़ा हुआ जोव अपने पुरुषार्थ द्वारा कोंके भारसे पूर्ण मुक्त होकर शाश्वत सुख मोक्षको प्राप्त कर सकता है। __ महावीरके समय में मुक्तिके साथ जीवस्वरूप, जीवका अस्तित्व, जगत्का नित्यत्व-अनित्यत्व, आत्माका शरीरसे भिन्न-अभिन्नत्व, लोकस्वरूप, आदि प्रश्नोंको चर्चा विद्यमान थी । अतः उन्होंने धर्म-आचारके निरूपण के पूर्व वस्तुस्वरूपका विवेचन आवश्यक समझा, यतः ज्ञेय या वस्तुके स्वरूप परिझानके बिना शेयको ग्रहण नहीं किया जा सकता । हेयोपादेय की प्रवृत्ति ज्ञेयस्वरूपके परिज्ञानसे ही होती है । अहिंसा, सत्य, अवौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका आचरण भी लेयको जानकारीके अभाव में संभव नहीं। अतएव ज्ञेयस्वरूप, ज्ञेयके भेद-प्रभेद, उनका सर्वाविवेचन तथा लोकव्यवस्था आदिके सम्बन्धमें देशना हई । जनसाधारणके सम्मुख उठनेवाले जीवादि-सम्बन्धी प्रश्नोंका समाधान भी शेयके अन्तर्गत समाहित है । अतः तीर्थकर महावीरके मुखसे पहला वाक्य-"उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' निकला। अर्थात् वस्तु-प्रतिक्षण उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव रहती है । ये तीनों ही अवस्थाएँ जिसमें रहती हैं, बहो ज्ञेय है, वस्तु है, पदार्थ है।
आशय यह है कि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है, वही सत् है और ३१८ : तोपंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा