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पाश्वनाथ अन्य सोथंकरोंके समान अचेल थे। अतः महावीरको उनसे अचेल-श्रम उपलब्ध हुआ था। यदि पार्श्वनाथ स्वयं सचेलक होते और उनकी परम्परामें साधुओंके लिए वस्त्रकी स्वीकृति होती, तो महावीर स्वयं न तो दिगम्बर रहकर साधना ही करते और न नग्नताको साधुत्वका अनिवार्य अंग मानकर उसे व्यावहारिक रूप ही देते। सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदास दोशीने "जैन साहित्य में विकार" ग्रन्थमें स्पष्ट लिखा है--"किसी वैद्यने संग्रहणीके रोगीको दवाके रूपमें अफीम सेवन करनेकी सलाह दो थी, किन्तु रोग दूर होनेपर भी जैसे जो तपकी गा रहता है, लोर मह इसे नहीं छोड़ना चाहता, वैसी ही दशा इस आपवादिक वस्त्र की हुई।" ___ अत: यह संभव है कि पार्श्वनाथकी परम्पराके साघु मृदुमार्गको स्वीकार कर वस्त्र धारण करने लगे हों और इस आपवादिक वस्त्रको उत्सर्ग मार्गमें ग्रहण कर लिया हो। उत्तराध्ययनके केशो-गौतम संबादमें इस आपवादिक वस्त्रको गन्ध प्राप्त होती है । वस्तुतः महावीरको पार्श्वनाथका सर्वसावद्यत्यागरूप दिगम्बर-मार्ग उपलब्ध हुआ। अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह रूप चातुर्यामधर्ममें सर्वप्राणिहितकी भावना समाहित थी । ब्रह्मचर्यका अन्तर्भाव अपरिग्रहमें किया गया था।
तीर्थकर महावीरने भगवान् पार्श्वनाथके इस धर्ममार्गको आगे बढ़ाया। महावीरके समयमें राजनीतिका आधार धर्म बना हुआ था । वर्ग-स्वार्थियोंने धर्मकी आड़में अपने वर्गके संरक्षण हेतु बहुत प्रकारके नियम-कानून बना डाले थे। ईश्वरके नामपर अभिजात वर्ग विशेष प्रभुसत्ता लेकर उत्पन्न होता था। इसके जन्मजात उच्चत्वका अभिमान स्ववर्गके संरक्षण तक ही नहीं फेला था, किन्तु शुद्र प्रभृति निम्न वर्गके व्यक्तियोंके मानवोचित अधिकार भो अपहृत्त किये जा चुके थे । स्वर्मलाभके लिए बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान किया जाता था। जो धर्म प्राणिमात्रके लिए सुस्त्र-शान्तिका कारण था, यही हिंसा, विषमता, प्रताड़न और शोषणका अस्त्र बना हुआ था । अतएव तीर्थंकर महावीरने धर्मसमाजके क्षेत्रमें मानवमात्रको समान अधिकार दिये । धर्मसाधनमें जाति, कुल, शरीर और आकारके बन्धनको स्वीकार नहीं किया ।
महावीरने अपनी तप, संयम और ध्यानको साधना द्वारा स्वयं दिव्यज्योति प्राप्त की और तदनन्तर उपलब्ध उस ज्योतिके प्रकाशको जनतामें बोट दिया । उनकी साधनाका आरम्भिक और अन्तिम बिन्दु वीतरागता थी। अन्तर केवल
१. जैन साहित्यमें विकार, पृ० ४०.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ३१७