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प्रमाण माना जाता था। पश्चात् स्व-परावभासी' ज्ञानको प्रमाण कहा जाने लगा। वस्तुतः स्वपरावभासी एवं बाधारहित ज्ञान प्रमाण है । इस लक्षणमें व्यवसायात्मक, अनधिगतार्थक और अविसंवादी पदोंका जोड़ना भी आवश्यक है । जो ज्ञान अनधिगत अर्थको जानते हुए विसंवादसे रहित निश्चयात्मक स्वपरावमासो होता है, वह प्रमाण हैं । __ज्ञान मात्र प्रमाण नहीं है, किन्तु जो तत्त्व-निर्णय करानेमें साधकतम ज्ञान हैं, कही प्रमाण है । जो पदार्थका निश्चय करानेवाला ज्ञान है, वह प्रमाणभूत है। ज्ञानकी प्रमाणतामें कोई अन्य कारण नहीं होता। किन्तु जो अर्थको सम्यक निश्चयात्मक रूपसे जानता है, वह ज्ञान प्रमाण है। निष्कर्ष रूपमें 'स्व' और 'पर' को निश्चयात्मक रूपसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण है।
प्रमाणकी सामान्य व्युत्पत्ति है-'प्रमीयते येन तत् प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान हो, उस द्वारका नाम प्रमाण है। प्रमाणभूत ज्ञान हो उपादेय है, क्योंकि इसीके द्वारा अज्ञानको निवृत्ति, इष्ट वस्तुका ग्रहण और अनिष्ट वस्तुका त्याग होता है । प्रामाण्य-विचार
प्रमाण जिस पदार्थको जिस रूपमें जानता है, उसका उसी रूपमें प्राप्त होना, अर्थात् प्रतिभात विषयका अव्यभिचारो होना प्रामाण्य कहलाता है। यह प्रमाणका धर्म है । इसकी उत्पत्ति उन्हीं कारणोंसे होता है, जिन कारणोंसे प्रमाण ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य, उनकी उत्पत्ति परतः ही मानी जाती है।
प्रमाणको ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वत: और अनभ्यासदशामें परतः होता है। जिन स्थानोंका हमें परिचय है, उन स्थानोंमें रहनेवाले जलाशमादिका ज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता या अप्रमाणताको प्रकट कर देता है, किन्तु अपरिचित स्थानों में होनेवाले जलज्ञानकी अप्रमाणता या प्रमागताका ज्ञान पनिहारियोंका पानी भरकर लाना, मेढकोंका टरांना या कमलकी गन्धका आना आदि जलके अविनाभावी लक्षणोंका ज्ञान परत:-प्रमाणभूत ज्ञानोंसे ही होता है।
प्रमाणके प्रामाण्यको उत्पत्ति परतः ही होगी। जिन कारणोंसे प्रमाण १. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भूवि बुद्धि लक्षणम् । -पृ. स्व० ६३. २. प्रामाण्यमुत्पत्ती परत एव, विशिष्टकारणप्रभवत्वादिशिष्ट कार्यस्येसि ।....
मनुत्पत्तो विज्ञानकारणातिरिक्तकारणान्तरसव्यपेक्षत्वमसिद्ध प्रामाण्यस्य, अबितरस्यवाभावात् । -प्रेभयरत्नमाला १।१३, पृ. ३०-३१.
तीर्थकर महावीर कौर उनको देशना : ४२३