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सकती है। इसके समाधानके कारण अपरिग्रह और संयमवाद हैं । ये दोनों संविधान समाजमेंसे शोषित और शोषक वर्गकी समाप्ति कर आर्थिक दृष्टिसे समाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं। जो व्यक्ति समस्त समाजके स्वार्थको ध्यानमें रखकर अपनो प्रवृत्ति करता है वह समाजकी आर्थिक विपमताको दूर करने में सहायक होता है। यदि विचारकर देखा जाय तो परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण ऐसे नियम हैं, जिनसे समाजको आर्थिक समस्या सुलश्न सकता है। इस कारण समाजधर्मकी तीसरी सोढ़ो आर्थिक सन्तुलनको माना गया है। स्वार्थ और भोगलिप्साका त्याग इस तीसरी सोढ़ीपर चढ़नेका आधार है। परिग्रहपरिमाण : आर्थिक संयमन ___ अपने योग-क्षेमवे लायक भरण-पोषणको बस्तुओं को गण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार द्वारा धनकर संचय न करमा परिग्रहरिमाग या व्यावहारिक अपरिग्रह है। धन, धान्य, रुपया-पैसा, सोना-चांदो, स्त्री-पुत्र प्रभूति पदार्थों में 'ये मेरे हैं, इस प्रकारके ममत्वपरिणामको परिमह कहते हैं। इस ममत्व या लालसाको घटाकर उन वस्तुओंके संग्रहको कम करवा परिग्रहपरिमाण है । बाह्यवस्तु-रुपये-पैसोंकी अपेक्षा अन्तरंग तृष्णा या लालसाको बिशेप महत्त्व प्राप्त है, क्योंकि तृष्णाके रहने से धनिक भी आकुल रहता है। वस्तुतः धन आकुलताका कारण नहीं है, आकुलताका कारण है तृष्णा । संवयवृत्ति के रहनेपर व्यक्ति न्याय-अन्याय एवं युक्त-अयुक्तका विचार नहीं करता।
इस समय संसारम धनसंचयके हेतु व्यर्थ ही इतनी अधिक हाय-हाय मची हुई है कि संतोष और शान्ति नाममात्रको भा नहीं । विश्वके समझदार विशेषज्ञोंने धनसम्पत्तिके बटवारेके लिए अनेक नियम बनाये है, पर उनका पालन आजतक नहीं हो सका । अनियन्त्रित इच्छाओंको तृप्ति विश्वको समस्त सम्पत्तिके मिल जानेपर भी नही हो सकती है। आशारूपी गड्ढेको भरने में संसारका सारा वैभव अणुके समान है । अत: इच्छाओंके नियन्त्रणके लिए परिग्रहपरिमाणके साथ भोगोपभोगपरिमाणका विधान भी आवश्यक है | समय, परिस्थिति और वातावरणके अनुसार वस्त्र, आभरण, भोजन, ताम्बल आदि भोगोपभोगकी वस्तुओंके संबंध भी उचित नियम कर लेना आवश्यक है।
उक्त दोनों व्रतों या नियमोंके समन्वयका अभिप्राय समस्त मानव-समाजको आर्थिक व्यवस्थाको उन्नत बनाना है। चन्द व्यक्तियोंको इस बातका कोई अधिकार नहीं कि वे शोषण कर आर्थिक दृष्टिसे समाजमें विषमता उत्पन्न करें। ५८४ : तीर्थकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा