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सकती है । यद्यपि कुछ लोग अहिंसाके द्वारा निर्मित समाजको आदर्श या कल्पनाकी वस्तु मानते हैं, पर यथार्थसः यह समाज काल्पनिक नहीं, प्रत्युत व्यावहारिक होगा । यतः अहिंसाका लक्ष्य यही है कि अगंभेद या जातिभेदसे ऊपर उठकर समाजका प्रत्येक सदस्य अन्यके साथ शिष्टता और मानवताका व्यवहार करे | छलकपट या इनसे होनेवाली छीनाझपटी अहिंसाके द्वारा ही दूर की जा सकती है । यह सुनिश्चित है कि बलप्रयोग या हिंसा के आधारपर मानवीय संबंधों को दीवार खड़ी नहीं की जा सकती है। इसके लिए सहानुभूति, प्र ेम, सौहार्द, त्याग, सेवा एवं दया आदि अहिंसक भावनाओंको आवश्यकता है । वस्तुतः अहिंसा में ऐसी अद्भुत शक्ति है जो आर्थिक, सामाजिक और राजनौतिक समस्याओं को सरलतापूर्वक सुलझा सकती है । समाजधमंकी दूसरी सीढ़ीपर चढ़नके लिए लोकहितकी भावना सहायक कारण है।
समाजको जर्जरित करनेवाली काले-गोरे, ऊँच-नीच और छुआ-छूतकी भावनाको प्रश्रय देना समाजधर्मकी उपेक्षा करना है। जन्मसे न कोई ऊंचा होता है और न कोई नोचा जन्मना जातिव्यवस्था स्वीकृत नहीं की जा सकती । मनुष्य जैसा आचरण करता है, उसीके अनुकूल उसको जाति हो जाती है । दुराचार करनेवाले चोर और डकेत जास्या ब्राह्मण होनेपर भो शूद्रसे अधिक नहीं है। जिन व्यक्तियों के हृदय में करुणा, दया, ममताका अजस्त्र प्रवाह समाविष्ट है, ऐसे व्यक्ति समाजको उन्नत बनाते है, जाति- अहंकारका विष मनुष्यको अर्धत किये हुए हैं । अतः इस विषका त्याग अत्यावश्यक है ।
जिस व्यक्तिका नैतिक स्तर जितना हो समाजके अनुकूल होगा वह उतना ही समाज में उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान उसका भी सामाजिक सदस्य होने के नाते वही होगा, जो अन्य सदस्योंका है। दलितवर्ग के शोषण, जाति और धर्मवादके दुरभिमानको महस्व देना मानवता के लिए अभिशाप है । जो समाजको सुगठित और सुव्यवस्थित बनाने के इच्छुक हैं, उन्हें आत्म-नियन्त्रण कर जातिवाद, धर्मवाद, वर्गवादको प्रश्रय नहीं देना चाहिए।
समाजधर्मकी सोसरी सोढ़ी : आर्थिक सन्तुलन
समाजकी सारी व्यवस्थाएँ अर्थमूलक हैं और इस अर्थके लिए ही संघर्ष हो रहा है। व्यक्ति, समाज या राष्ट्रके पास जितनी सम्पत्ति बढ़ जाती है वह व्यक्ति, समाज या राष्ट्र उतना ही असन्तोषका अनुभव करता रहता है । अतः घनाभावजन्य जितनी अशान्ति है, उससे भी कहीं अधिक धनके सद्भावसे है । अशान्तिका सबल कारण माना जाता है, पर विश्वकी सम्पत्तिको बांट देनेसे नहीं सुलक
घनके असमान वितरणको यह असमान वितरणको समस्या
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५८३