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है । दूसरी बात यह है कि शब्दको प्रवृत्ति बक्ताके अधीन है। वक्ता वस्तुक अनेक धर्मोसे किसी एक धर्मका मुख्यतासे व्यवहार करता है । यथा देवदत्तको एक ही समय में उसका पिता भी बुलाता है और पुत्र भी। पिता उसे पुत्र कहकर और पुत्र उसे पिता कहकर बुलाता है । देवदत्त यहां न केवल पिता हो है न केवल पुत्र ही, किन्तु वह पिता भी है और पुत्र भी । अतएव पिताको दष्टिसे देवदत्तका पुत्रत्व धर्मं मुख्य है और शेष धर्मं गौण है और पुत्रको दृष्टिसे देवदत्तमें पितृत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण है । क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुसे जिस धर्मको विवक्षा होती है वह धर्म या गुण मुख्य कहलाता है और इतर धर्म गौण । अतः वस्तु अनेकान्तात्मक है या अनन्तसहभावी गणों - और अनन्त क्रमभावी पायोका समूह है। वस्तुक. स्तुत्व इसने में ही परिसमाप्त नहीं होता, वह इससे भी विशाल है ।
स्पष्टता के लिये यों कहा जा सकता है कि घट सामने है । आँखोंसे घटका रूप और आकार दिखलाई पड़ता है। पर घट केवल रूप और आकारमात्र नहीं है । घटको ऊंचा उठानेपर या उसे इधर-उधर उठानेपर उसके अन्य धर्म- गुण प्रगट होते हैं । अतः घटका पूरा स्वरूप समझने के लिये किसी ऐसे तत्त्वज्ञानीकी शरण लेनी होगी जा घट में रहनेवाले रूप-रस-गन्ध और स्पर्श आदि स्थूल इन्द्रियोंसे प्रतीत होनेवाले तथा इन्द्रियोंसे प्रतीस न होनेवाले अनन्त गुणोंet freपण कर सके । घटमें अनन्त सहभावो गुणोंके साथ अनन्तकमभावी पर्यायें भी विद्यमान हैं । अतः सहभावो और क्रमभावी अनन्तगुणपर्यायके जान लेनेपर ही वस्तुका स्वरूप पूर्ण होता है। यही कारण है कि वस्तुमें अनेक विरोधी-सत्ता असता, निश्यता, अनित्यता, एकता, अनेकता प्रभृति विभिन्न गुणपर्याय विद्यमान हैं ।
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अनेकधर्मात्मक वस्तुको पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणोंसे समझना और विभिन्न दृष्टिकोणोंसे संगत होनेवाले किन्तु परस्पर विरुद्ध प्रसीत होनेवाले अनेक धर्मोको प्रामाणिक रूप से स्वीकार करना अनेकान्तवाद है । साधारणतः अनेकान्तसिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है । पर वास्तव में अनेकान्त सिद्धान्त व्यक्त करनेवाली सापेक्ष भाषापद्धति ही स्याद्वाद है ।
यह हमें ज्ञात है कि प्रत्येक वस्तुमें अनन्त धर्म विद्यमान है और उन समस्त धर्मोका अभिन्न समुदाय ही वस्तु है । इस वस्तुस्वरूपको व्यक्त करनेके लिये भाषा की आवश्यकता है। यह अनेकान्तकी भाषा ही स्याद्वाद है ।
भाषा शब्दोंसे बनती है और शब्द धातुमसे निष्पन्न हैं । एक धातु भले ४७४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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