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४. चूर्णिका-दालरूपमें टुकड़े, उड़द, मूंग आदिको दाल ।
५. प्रतर-मेघ, भोजपत्र, अभ्रक और मिट्टी आदिको तहें निकालना प्रतर है।
६. अणुचदन-स्फुलिङ्ग-गर्म लोहे आदिमें घन मारना अथवा शान धरते समय स्फुलिङ्गोंका निकलना ।
भंगके और भी भेद संभव हो सकते हैं, ये सभी पुद्गलको पर्यायों में परिगणित हैं । वस्तुतः यह सारा संसार पुद्गलका ही क्रीड़ा-क्षेत्र है । पुद्गल अनेक रूपों और विभिन्न आकृतियों में अपना कार्य सम्पादित करता है । प्रकाश-अन्धकार : पुद्गलपर्याय
सूर्य, चन्द्र, बिजली, दीपक आदिके सम्बन्धसे पुद्गल-स्कन्धोंमें नेत्रोंसे देखने योग्य जो परिणमन होता है, वह प्रकाश है और सर्य आदिके अभाव में जो पुद्गल-स्कन्ध काले (अन्धकारके) रूपमें परिवर्तित होते हैं, वह अन्धकार है । प्रकाश और अन्धकार मूत्तिक हैं,) यत्तः इनका अवरोध किया जा सकता है। तम और अन्धकार एकार्थक हैं और प्रकाशके प्रतिपक्षी हैं। क्योंकि प्रकाशपथमें सघन पुद्गलोंके आजानेसे अन्धकारकी उत्पत्ति होती है । अतएव ये दोनों पौगलिक है। छाया : पुद्गल-पर्याय
सुर्य, दीपक, विद्युत् आदिके कारण आस-पासके पुद्गलस्कंध भासुररूप धारण कर प्रकाशस्कन्ध बन जाते हैं। जब कोई स्थूलस्कन्ध इस प्रकाशस्कन्धको जितनी जगहमें अवरुद्ध रखता है, उत्तने स्थानके स्कन्ध काला रूप धारण कर लेते हैं, यही छाया है । छायाकी उत्पत्ति पारदर्शक अण्वीक्षोंके प्रकाशपथमें आ जानेसे अथवा दर्पणमें प्रकाशके परावर्तनसे होती है। इस छायांके निम्नोक्त भेद हैं :
(१) वास्तविक प्रतिबिम्ब-प्रकाश-रश्मियोंके मिलनेसे वास्तविक प्रतिबिम्ब बनते हैं।
(२) अवास्तविक प्रतिबिम्ब समतल दर्पणमें प्रकाशरश्मियोंके परावर्तनसे बनते हैं।
छाया पुद्गलजन्य है, अतः पुद्गलको पर्याय है । आतप-उद्योत : पुद्गल-पर्याय
सूर्य आदिका उष्ण प्रकाश यातप कहलाता है और चन्द्र, मणि एवं जुगनू आदिका शीत प्रकाश उद्योत कहलाता है । अग्निसे इन दोनोंमें अन्तर है।
तीर्थकर महावीर और उनको देशमा : २५५