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सुभद्र, यशोमंद्र, यशोबाहु और लोहार्यं आचारांग के धारक तथा शेष अंग एवं पूर्वोके एकदेश धारक हुए। इसके अनन्तर धरसेन, भूतंबली, पुष्पदन्त आदि आचार्य हुए । '
इस प्रकार संघका विकास देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार होता गया । निर्ग्रन्थ सर्क प्रधान केन्द्र श्रवणर्वतमाला, मथुरा आदि स्थान तथा श्वेताम्बर संघ के उज्जयिनी, बलभी, प्रतिष्ठान प्रभृति स्थान बने । यद्यपि समयके प्रभाव के कारण अनेक विकृतियां उत्पन्न हुईं, पर तीर्थंकर महावीर के सिद्धान्त अक्षुण्ण रहे ।
आचार्योंकी पट्टावली कई रूपों में मिलती है। इन पट्टावलियोंमें समानता के साथ कई विषमताएं भी उपलब्ध होती हैं ।
१. बदलाटीबर १ पुस्तक, पृ० ६६-६७.
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२. विशेषके लिए देखें - आचार्य परम्परा, द्वितीय तृतीय भाग ।
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ३१५