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पश्चात हुए हैं। अतः उनके श्रुतकेवलौ भद्रबाहुके समकालीन होनेका प्रश्न ही नहीं है ।"
मगधमें जब बारह वर्षका महाभिक्ष पड़ा तो भद्रबाहुके नेतृत्वमें जैनसंघ दक्षिणकी ओर गया और कर्णाटक देशके श्रवणबेलगोल नामक स्थानको अपना केन्द्र बनाया । श्रुतके वली भद्रबाहुने दक्षिण भारतमें ही समाधिमरण ग्रहण किया।
पश्चात् एकसौ तेरासी वर्ष में ग्यारह मुनि दश पूर्वके धारक हुए। अनन्तर दोसौ बीस वर्ष में पाँच मुनि ग्यारह अंगके धारी हुए । तदनन्तर एकसों अठारह वर्ष में सुभद्रगुरू, जयभद्र', यशोवाहु और महापूज्य लोहार्य ये चार मुनि आचारांगके धारी हुए।
इनके पश्चात् महातपस्वी विनयन्धर, गुप्तश्रुत्ति, गुप्तऋषि, मुनीश्वर शिवगुप्त, अर्हबलि, मन्दरार्य, मित्रवीरवि, बलदेव, मित्रक, सिंहबल वीरवित्, पद्मसेन, व्याघ्रहस्त, मागहस्ती, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, सुधर्मसेन, सिंहसेन, सुन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिसेन आचार्य हुए । अनन्तर षद्खण्डागमके ज्ञाता, इन्द्रियजयी जयसेन नामक आचार्य हुए। इनके शिष्य प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशाली और सिद्धान्तपारगामी अमितसेन गुरु हुए। ये पवित्र पुन्नाट गणके अग्रणी-- अग्रेसर आचार्य थे। __ जिनेन्द्र शासनके स्नेही परमतपस्वी, सौ वर्षकी आयुके धारक एवं दाताओंमें मुख्य इन अमितसेन आचार्यने शास्त्रदानके द्वारा पृथिवीमें अपनी वदान्यतादानशीलता प्रकट की थी 1 इन अमितसेनके अग्रज धर्मबन्धु कोतिषेण नामक मुनि थे; जो शान्त, बुद्धिमान और तपस्वी थे । इनके शिष्य जिनसेन प्रथम हुए । इस प्रकार पुत्राटसंघी आचार्योको परम्परा चली।
धवलाटीकाके उल्लेखानुसार पांच श्रुतकेलियोंके पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्टिल, क्षत्रिय, जयाचार्य,नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य एकादश अंग और उत्पादपूर्व आदि दश पूर्वोके धारक तथा शेष चार पूर्वोके एकदेश घारक हुए। ___ इसके पश्चात् नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी,ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पांच अचार्य सम्पूर्ण ग्यारह अंग और चौदह पूर्वक एकदेश धारक हुए । अनन्तर १. हरिवंशपुराण ६६।२३-२४. २. वही, ६६।२५-३३. ३१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा