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हैं और जिज्ञासा सात ही प्रकारको क्यों होती हैं ? इसके समाधानरूपमें यही कहा जा सकता है कि शिमगत कारले होते हैं और सात प्रकारके संशय होनेका कारण संशयको विषयभूत वस्तुकै धर्म सात प्रकारके हैं । अतएव अपुनरुक्त रूपसे सात ही भङ्गसम्भव है । आशय यह है कि सप्तभङ्गोन्यायमें मनुष्यस्वभावको तकमलक प्रवृत्तिको गहरी छानबीन की आती है। जो सत, असत्, उभय और अनुभव ये चार कोटियाँ तत्त्वविचारके क्षेत्रमें प्रचलित हैं और उनका अधिक-से-अधिक विकास सात रूपमें ही सम्भव है । सत्य त्रिकाला बाधित होता है, अतः तर्कजन्य प्रश्नोंका समाधान सप्तभंगी प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है।
प्रत्येक वस्तुके स्वतन्त्र गुण और पर्याय हैं और ये प्रतिषेध सापेक्ष हैं अर्थात किसी भी वस्तुका प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी धर्मको अपेक्षासे किया जाता है। सप्तभङ्गोन्याय वस्तुके यथार्थ स्वरूप तक पहुँचानेका साधन है । प्रमाणसप्तभङ्गो एवं नयसप्तमङ्गो
समभङ्गीके दो भेद हैं:-(१) प्रमाणसप्तभङ्गी और (२) नयसप्तभङ्गी । प्रमाण सकलवस्तुमाही होता है और नय एकदेशमाही। जहां वक्ता एक धर्मके द्वारा पूर्ण वस्तुका बोध कराना चाहता है यहाँ उसका वाक्य प्रमाणवाक्य कहा जाता है। यदि वह एक ही धर्मका बोध कराना चाहता है और वस्तुके वर्तमान शेष धर्मों के प्रति उसकी दृष्टि उदासीन है, तो उसका वाक्य नयवाक्य कहा जाता है । साधारणत: जितना भी वचनव्यवहार है, वह नयके अन्तर्गत है। अतः नयसप्तभङ्गीकी प्रमखता है। यों तो अनेकधर्मात्मक वस्तुका बोध करानेके हेतु प्रवर्तमान शब्दको प्रवृत्ति दो रूपसे होती है:-(१) क्रमशः और (२) योगपद्य । तीसरा वचनमार्ग नहीं है । जब वस्तुमें वर्तमान अस्तित्त्वादि धर्मो की काल आदिके द्वारा भेदविवक्षा होती है, तब एक शब्दमें अनेक अर्थोंका ज्ञान करानेकी शक्तिका अभाव होनेसे क्रमशः कथन होता है और जब उन्हीं धर्मोमें काल आदिके द्वारा अभेदविवक्षा होती है तब एक शब्दको एक धर्मका बोध करानेकी मुख्यतासे तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोंका अखण्डरूपसे युगपत् कथन हो जाता है। यह युगपत् कथन सकलादेश होनेसे प्रमाण कहलाता है और मशः कथन विकलादेश होनेसे नय कहलाता है। सकलादेश और विकलादेश दोनोंमें हो सप्तभंगी होती है। सकलादेशमें होनेवाली सप्तभङ्गो प्रमाणसप्तभङ्गी है और विकलादेश में होनेवाली सप्तमनी नयसप्तभङ्गो है। प्रमाणसप्तभङ्गी और नयसप्तभङ्गीके
१७६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा