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प्रयोग में बक्ताकी विनाके अतिरक्त और कोई मौलिक भेद नहीं है । दोनों ही सप्तभङ्गी में "स्याद रत्येव जीवः " यह उदाहरण प्राप्त होता है । मतान्तर से " स्यात् जीवः स्यात् जीव एव" यह प्रमाणवाक्यका और " स्यादस्त्येव जीवः " यह नयवाक्यका उदाहरण है ।
समभङ्गों को सिद्धि
प्रश्न मात प्रकार के कारण एक वस्तु नही होते हैं क्योंकि सात से अतिरिक्त आठवें भङ्गका निमित्तभूत आठवां प्रश्न संभव नहीं है । प्रश्नके अभाव में न जिज्ञासा ही सम्भव है न संशयादि । यहाँ घटके साथ सातभङ्गी घटित करते हैं :--
१. स्यादस्त्येव घटः |
२. स्यानास्त्येव घटः ।
३. स्यादवक्तव्य एव षः ।
४. स्यादुभयो घटः स्यादस्ति नास्ति घटः ।
५. स्यादस्ति अवक्तव्य एवं घटः ।
६. स्याद् नास्ति अवक्तव्य एव घटः ।
७. स्थादस्ति नास्ति अवक्तव्य एव घटः |
प्रथम- द्वितीय भंगसिद्धि
'स्यादस्ति एव घट:' इस वाक्य में घटशब्द विशेष्य होनेसे द्रव्यवाची है और अस्तिशब्द विशेषण होनेसे गुणवाची है । इन दानों में विशेषणविशेष्य-सम्बन्ध बतलाने के लिये एवकार रखा गया है । यदि 'अस्ति एव घटः - घट सत् ही हैं, इतना हो कहा जाय, तो घटमें असत् आदि अन्य धर्मोकी निवृत्तिका प्रसंग आयगा । अतः घटमें अन्य धर्मो का अस्तित्व बतलाने के लिये 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है ।
यहाँ 'स्यात्' शब्द से सामान्यतः अनेकान्तका ग्रहण हो जाता है, पर विशेपार्थीको विशेष शब्दों का प्रयोग करना ही होता है । यथा - वृक्ष शब्दसे सभी प्रकार के वृक्षोंका ग्रहण होनेपर भी किसी विशेष वृक्षका कथन करने के लिये 'शिशपा' आदि शब्दों का प्रयोग करना होता है ।
'स्यात् ' शब्द अनेकान्तका द्योतक होता है। वह किसी वाचकशब्दके निकट में हुए बिना इष्ट अर्थका द्योतन नहीं कर सकता । अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्म आधारभूत अर्थका कथन करनेके लिये इतर शब्दों का प्रयोग किया जाता
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४७७