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है । वस्तुतः गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भंगोंका प्रयोग सार्थक होता है। यथा--द्रव्यार्थिक नयको प्रधानता और पर्यायाथिक नयको गौणतामें पहला घटित होता है।
पर्यायाथिक नयकी प्रधानता और द्रष्यार्थिक नयकी गौणतामें दूसरा भंग घटित होता है । प्रधानता और अप्रधानता शब्दके अधीन है । जो शब्दके द्वारा विवक्षित हो, वह प्रधान है और जो शब्दके द्वारा नहीं कहा गया है और अर्थसे गम्यमान होता है वह अप्रधान है ।
प्रथम भंगके प्रत्येक पदकी सार्थकता 'घट ही है' ऐसा अवधारण करनेपर घटसे अतिरिक्त अन्य पदार्थो के अभावका प्रसंग आता है। अत: प्रथम भंगमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करनेसे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल-स्वभावको अपेक्षासे घटका अस्तित्व सिद्ध होता है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षासे घटके नास्तित्व आदि धर्म प्रतिफलित होते हैं। इस तरह स्वचतुष्टयको दष्टिसे घट है और पर चतुष्टयकी अपेक्षा घट नहीं है, यह सिद्ध हो जाता है। द्विताय भगक कथन में परद्रव्य, १२ई, पसाह और सनावकी प्रधानता है। इसो चतुष्टयको मुख्यकर तथा द्रव्यार्थिक नयको मोणकर कथन करनेसे द्वितीय भंग सिद्ध होता है । तृतीय भंग स्याद् अवक्तव्यसिद्धि
जब दो गुणोंद्वारा एक अखण्ड अर्थको अभिन्न रूपसे-अभेदरूपसे एक साथ कथन करनेको इच्छा होती है, तो तीसरा अवक्तव्य भंग होता है । यथा-प्रथम और द्वितीय भंगमें एक कालमें एक शब्दसे एक गणके द्वारा क्रमशः एक समस्त वस्तुका कथन हो जाता है । उसी प्रकार जब दो प्रतियोगी गुणोंके द्वारा अवधारण रूपसे एक साथ एक कालमें एक शब्दसे समस्त वस्तुके कहनेको इच्छा होती है, तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है, क्योंकि उस प्रकारका न तो कोई शब्द हो है और न अर्थ ही । सारांश यह है कि जब किसी वस्तुमें अस्ति और नास्ति धर्म युगपत् विवक्षित होते हैं, उस समय दोनों धर्मों को एक साथ कहनेवालं शन्दका अभाव रहता है, क्योंकि शब्दोंमें क्रमशः ज्ञान करानेको शक्ति होती है। अत: 'अस्ति' और 'नास्ति' इन दोनों धर्मो की एक साथ प्रधानता होनेपर तृतीय भंग 'स्यात् अवक्तव्य एव घटः-घड़ा कथंचित् अवकतव्य है, बनता है।
कुछ समोक्षकोंका अभिमत है कि शब्दमें वस्तुके तुल्यबलवाले दो धर्मोका मुख्यरूपसे युगपत् कथन करनेकी शक्यता न होने से निर्गुणत्वका प्रसंग प्राप्त
४७८ : तीथंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा