________________
होने एवं विवक्षित उभय धर्मोका प्रतिपादन न हो सकनेके कारण वस्तु अवक्तव्य है ।
सामान्यतः अवक्तव्य भंग रहस्यपूर्ण प्रतीत होता है, पर यथार्थतः वस्तुका स्वरूप कुछ इतना संश्लिष्ट एवं सूक्ष्मातिसूक्ष्म है कि शब्द उसके अखण्ड अन्तस्तल तक नहीं पहुंच पाता, क्योंकि शब्द की अपनी सीमा है। फिर भी किसी प्रकार उसका वर्णन तो किया ही जाता है। पहले वस्तका अस्तित्व वणित होता है, पश्चात् जब वहाँ अपर्याप्तता एवं अपूर्णताको अनुभूति होती है, तो उसका नास्तिरूप सामने आता है। पर जब वहाँ भो वस्तु अपूर्ण प्रतीत होती है और शब्दशक्तिकी अक्षमता दिखलायी पड़ती है, तो वस्तु अवक्तव्य, अनिर्वचनीय या अव्याकृत कह दी जाती है । यतः शब्दके द्वारा पदार्थके दो धर्मोका एक साथ कथन सम्भव नहीं। क्योंकि शब्द धातुओंसे बनते हैं एवं धातु क्रियाके वाचक हैं और क्रिया एक समयमें एक ही होती है, दो या तीन नहीं। अतः दो धर्मोके एक साथ प्रतिपादन करनेका जब समय उपस्थित होता है, तब यह कहा जाता है कि पदार्थ अवक्तव्य है और यह अबक्तव्य भी अपेक्षाकृत है। इसके भी पूर्व 'स्यात्' जोड़ा गया है। अतः मूल सत्ताके विषय में एक समयमें अस्तित्व एवं नास्तित्व, जो सत्ताके दोनों समान धर्म है, किसी एक शब्दप्रत्ययके द्वारा अभिपतनही हो सकते ! पार पवनयात'गमा मानना आवश्यक है । चतुर्थभंगसिद्धि : स्यादस्सिनास्ति ___ अस्ति मोर नास्ति दोनों धमौका कामसे एक साथ कयन करनेपर चतुर्थभंग बनता है। इस भंगमें दोनों नयोंकी प्रधानता रहती है । इसलिये कहा जाता है कि कथंचित् घट अस्ति-नास्तिरूप ही है। यदि वस्तुको सर्वथा उभयात्मक माना जाय, तो सत् और असत्में परस्पर विरोध होनेसे उभय दोषका प्रसंग आता है। जिस प्रकार ठंडाईमें बादाम, सोंफ, गोलमिर्च आदि विभिन्न द्रव्योंके अंशोंकी विशेष प्रतिपत्ति होती है, उसी प्रकार अस्तित्व-नास्तित्व धोके सम्बन्धसे जात्यन्तररूप भंगमें भी सत्-असत् इन दोनों धर्मोकी प्रतिपत्ति होती है । पञ्चमभंग स्यास्ति अवक्तव्यसिद्धि __इस भंगको सिद्धिमें द्रव्याथिकनयको प्रधानता और द्रव्याथिक एवं पर्यायाथिकनयकी अप्रधानता होती है । व्यस्त द्रव्य एवं एक साथ अपित्त द्रव्य और पर्यायको अपेक्षासे पंचमभंगको प्रवृत्ति होती है। यथा-'स्यादस्ति च अवक्तव्यश्न एव घट:'--"घड़ा कथंचित् अस्तिरूप और अवक्तव्यरूप ही है।
अनेक द्रव्य और अनेक पर्यायात्मक वस्तुके किसी विशेष द्रव्य अथवा पर्याय विशेषको विवक्षामें एक घट अस्ति है। वहीं पूर्व विवक्षा तथा द्रव्यसामान्य
जीशंकर महावीर और उनकी देशना : ४७९