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करना । संसारके कोटि-कोटि जनको यह मुक्ति या बास्माको स्वतन्त्रता तो अभीष्ट है, पर स्वतन्त्रताको प्राप्त करनेको पेष्टा या प्रयत्न अभीप्सित नहीं है। चाहनेपर भी पुरुषार्थकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती 1 परमत्वको उपलब्धिके लिये शील, संयम, तप, त्यागरूप सम्यक्चारित्रका आचरण करना होगा। जिसके हाथमें सम्यवाद्धा और ज्ञानके साथ सम्यक्यारित्र-यालनरूपी तीक्ष्ण खंग है, वही प्रलोभनों और विकारोंपर विजय प्राप्त कर सकता है। अतः मुक्तिश्रीके अभिलाषीको सम्यग्ज्ञान-दर्शनपूर्वक सम्यकचारित्रकी डोर थामनी होगी। वस्तुतः चारित्र नौका है, और सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-ये दो केवट है, जो चारित्रकी नौकापर आरूढ़ है, उसे भवसागर पार करनमें बिलम्ब नहीं है। पर चारित्रकी सफलता सब है, जब वह आत्माका सर्वस्व बन जाय | ऊपरसे मोढ़ा हुआ चारित्र तो किसी भी समय उतारकर फेंका जा सकता है। अग्नि और उष्णताके समान चारित्र और चारित्रवान्में तादात्यभाव होना चाहिये । उष्णता अग्गिरो जातिमाज्य है. गारिग भी मजिदारसे अपचन है। मुक्तिपर्व-पावापुरकी ओर
तोशंकर महावीर इस धरतीपर शानका अमृत प्रवाहित करने आये थे। उन्होंने निरन्तर तीस वर्षों तक विहारकर धरतीके फ्लेशोंका अपहरण किया। मानव-समाजको दुःखोंसे छुड़ाया, उसके हृदयमें ज्ञानदीप प्रज्ज्वलितकर सुख, शान्ति और कल्याण-मार्गको आलोकित किया।
यों तो संसारके रंगमंचपर अनेक क्रान्तियां हो चुकी हैं, पर उन सभी क्रान्तियोंका प्रभाव बाह्य जगत तक सीमित रहा है। तीर्थकर महावीरने अपनी क्रान्ति द्वारा संक्लिष्ट मनको उद्बुद्ध किया । वे जाति, सम्प्रदाय एवं वर्गकी सोमाके घेरेको तोड़कर बाहर निकले । उन्होंने देश और जनपदोंके सीमाबन्धनको भी अतिक्रान्त किया और विश्वके समस्त मानवोंको विषमताकी वाइयोंसे निकालकर समताके धरातलपर उपस्थित किया। उन्हें जो दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने विश्वके प्राणि-जगतमें बाँट दिया।
महावीर इस धरतीको ज्ञानामृतसे सिंचन करते हुए पावापुर' नामक स्थान
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१. जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य सन्सतं समन्ततो भब्यसमहसम्ततिम् । प्रपद्य पावानगरी गरीयसी मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥
-हरिवंशपुराग, ज्ञानपीठ-संस्करण, ६६।१५. क्रमास्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनासरे। बहूनां सरसा मध्ये महामगिशिलातले ।।
___ २८८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा