________________
में पधारे और वहाँके मनोहर नामक वनके मध्य अनेक सरोवरों के बीच में मणिमय शिलापर विराजमान हुए। बिहार छोड़कर उन्होंने कोंकी निर्जराको वृद्धिंगत किया।
यहाँपर मन, वचन और काय योगका निरोधकर क्रियारहित हो मोक्षक लिए आवश्यक अघातियाकोको नष्ट करनेवाले प्रतिमायोगको धारण किया। दिव्यध्वनि बन्द हो गयी और वचनयोगका भी पूर्णतया निरोध हो गया ।
इस योगद्वारा देवगति, पाँच शरीर, पांच संघात, पांच बन्धन, तीन अंगो. पांग, छह संस्थान, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूळ, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, दो विहायोगतियाँ, अपर्याप्ति, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, सुस्वर, अनादेय, अयशःकोति, असातावेदनीय, नीपगोत्र एवं निर्माण इन बहत्तर कर्मप्रकृतियोंका अयोगी गुणस्थानके उपान्त्यमें क्षय किया । अपने शक्तिबलसे शुक्लष्यानके चतुर्थ भेद व्युपरतक्रियानितिका आलम्बनकर आदेय, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, पञ्चेन्द्रियजाति, मनुष्य-आयु, पर्याप्ति, अस, वादर, सुभग, यशःकीति, सातावेदनीय, उच्चगोत्र एवं तीर्थकर नामकर्म इन सेरह प्रकृतियोंका अन्त समयमें क्षपण किया।
महावीरने योगनिरोधार्थ षष्ठोपवास धारण किया और कायोत्सर्ग द्वारा कर्म-प्रकृतियोंका विनाश किया।'
अन्य आगम ग्रन्योंसे भी अवगत होता है कि तीर्थकर महावीरने आयुके
स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कृष्णकार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निधारयये ।। स्वातियोगे तृतीया शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधः समुच्छिन्नक्रियं श्रितः ।। हतापातिचतुष्कः सम्मशरीरो गुणात्मकः । गन्ता मुनिसहाग निर्वाण सर्ववाञ्छितम् ।।
... उत्तरपुराण, ज्ञानपीठ-संस्करण, ६७१५०१-५१२ १. एभिः समं त्रिभुवनाधिपतिविहत्य,
त्रिशत्समाः सकलसस्वहितोपदेशी । पावापुरस्य कुसुमाचितपादपानां, रम्य नियोपयनमाप ततो जिनेंद्रः ।।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २८९