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वरणका क्षयोपशम होता है और उसी जातिके अङ्गोपाङ्गका उदय होता है । फलस्वरूप प्रत्येक संसारी जीवके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय एक समान पायी जाती हैं। एकेन्द्रियजीवके एक स्पर्शन इन्द्रिय; हौन्द्रियजीवके स्पर्शन और रसना इन्द्रिय; श्रीन्द्रियजीवके स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रिय; चतुरिन्द्रियजीवके स्पर्शन, रसना, ध्राण, और चक्ष एवं पञ्चेन्द्रियजीवके स्पर्शन, रसना, घ्राण चक्ष और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियाँ होती हैं। ये पांची इन्द्रिया क्षाघांपशामक हैं, अतः इनका विषय मूर्त पदार्थ ही है। स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्शको विषय करती है; रसना इन्द्रिय रसको प्राण इन्द्रिय गन्धको; चक्षरिन्द्रिय रूपको और श्रोत्रइन्द्रिय शब्दको विषय करती है । __इन्द्रियोंकी शक्ति पृथक् पृथक होने से वे पृथक्-पृथक रूपसे विषयोंको जानती हैं, अत: एक इन्द्रियका विषय दुसरी इन्द्रियमे संक्रान्त नहीं होता। इन्द्रियों के इन पांचों विषयों मेंसे स्पर्श आदि चार गुणपर्याय हैं और शब्द व्यंजन द्रव्य पर्याय । __यों तो प्रत्येक पुद्गल में स्पर्शादिक सभी गुण पाये जाते हैं, पर जो पर्याय अभिव्यक्त होती है, उसीको इन्द्रिय ग्रहण करती है। संक्षेपमें इन्द्रियाँ मनके सहयोगसे पदार्थोंको जानती हैं | मन समस्त इन्द्रियोंके साथ युगपत् सम्बन्धित नहीं होता। एक कालमें एक इन्द्रियके साथ ही सम्बन्ध करता है। आत्मा उपयोगमय है, वह जिस समय जिस इन्द्रियके साथ मनोयोग कर जिस वस्तुमें उपयोग लगाती है, तब वह तन्मय हो जाती है। अतः युगपत् इन्द्रियद्वयका उपयोग नहीं होता। देखना, चखना और सूंघना भिन्न-भिन्न क्रियाग है। इनके साथ मनकी गति एक साथ नहीं होती।
मनको ज्ञानशक्ति तीव्र होती है, अतः उसका क्रम जाना नहीं जाता | युगपत् सामान्य विशेषात्मक बस्तुका ज्ञान तो संभव है, पर दो उपयोग एक कालमें एक साथ नहीं होते। मन : स्वरूप एवं कार्य ____ मनन करना मन है अथवा जिसके द्वारा मनन किया जाता है, वह मन है। इसे अनिन्द्रिय भी कहते हैं। जिस प्रकार पांचों इन्द्रियोंका विषय नियमित है, उस प्रकार गनका विषय नियमित नहीं है । वह वर्तमानके समान अतीत और भविष्यके विषयको भी जानता है । अतीतकी घटनाओं का स्मरण भी मन द्वारा होता है, अतः मनका विषय मूतं और अमूर्त दोनों प्रकारके पदार्थो को जानना है । __मुख्यरूपसे मनका कार्य चिन्तन करना है। वह इन्द्रियोंके द्वारा गृहीत वस्तुओंके सम्बन्ध में तो सोचता ही है, पर इससे आगे भी सोचता है । इन्द्रियज्ञानका प्रवर्तक होनेपर भी मनको सर्वत्र इन्द्रियज्ञानकी अपेक्षा नहीं होती।
४१६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा